Saturday, 24 December 2016

Random Page, Saturday, December 24, 2016

कभी कभी सोचता हूँ कि आखिर हमें गुस्सा क्यों आता है। गुस्सा हमें तब आता है जब हम दुखी होते हैं। वो भी किसी ऐसी वजहों से जिनसे हम कुछ ऐसी उम्मीद लिए बैठे होते हैं जो कि पूरे नहीं होते। हम अपनी सारी उम्मीदें पूरी होते देखना चाहते हैं। मुझे याद है जब हमारे अंग्रेजी की क्लास में ग्रुप डिस्कशन होता था तो किसी ऐसे मुद्दे को चुना जाता था जो हमारे मन में घर कर रखा होता था। ऐसे ही किसी एक क्लास का एक मुद्दा ही यही था कि हम दुखी क्यों होते हैं। उसमे बहुत से तर्क आये लेकिन हमारे टीचर ने लास्ट में एक ही लाइन में सरे थ्योरी को ख़त्म कर दिया। लाइन भी नहीं एक शब्द में ही सारे आंसर थे। वो शब्द है "Expectation", "उम्मीद"!
कभी आपने सोचा है कि हमें दुसरे का व्यवहार अच्छा क्यों नहीं लगता? क्योंकि वो हमसे उस लहजे में पेश नहीं आता जिसकी हम उससे उम्मीद करते हैं। लेकिन समस्या एक और है। हम हमेशा अपनी ही नजरिया को तवज्जो देते हैं। कभी दुसरे की नज़रों से देखने कि कोशिश नहीं करते। हम कभी ये सोचने का कष्ट नहीं करते कि सामने वाला हमसे क्या उम्मीदें लगा बैठा है। हम अपने लिए तो सारे आदर और सत्कार चाहते हैं लेकिन वही आदर और सत्कार हम दूसरों को देने में आना-कानी करते हैं। कई बार हम मान चुके होते हैं कि उससे उम्मीद करना बेकार हैं फिर भी उम्मीद करना नहीं छोड़ते।

Friday, 9 December 2016

Random Page; Sunday, December 4, 2016

जीवन जीने के लिए जिस आत्मविश्वास की जरुरत होती है वो घर में हमें कभी नहीं मिल पाता। जो बच्चे घर से बहार रहकर पढ़ते हैं उनमें हमेशा उन बच्चों से ज्यादा आत्मविश्वास होता है जो बच्चे घर में रहकर ही पढ़ते हैं। 
जो आज़ादी हमें जिंदगी को समझने के लिए घर से बाहर मिल जाता है वो घर में नहीं मिल पाता। अगर वो आज़ादी, वो माहौल, अगर घर में मिल जाये तो शायद घर से बहार जाने का किसी का मन नहीं करेगा। लेकिन वो सबकुछ घर में नहीं मिल पाता। कम से कम आज़ादी का वो एहसास तो नहीं ही होता है। यही कारण है कि जो एकबार घर से बाहर रह लेता है उसे घर में कुछ दिन बिताने पर ही घुटन महशुस होने लगती है।
ऐसा नहीं है कि हमारे पेरेंट्स ने इन बातों को महशुस न किया हो। वो भी जब पढाई या नौकरी के लिए घर से बाहर गए होंगे तो उन्हें भी इन बातों का एहसास हुआ होगा। लेकिन वो यही बात अपने बच्चों के लिए नहीं सोच पाते हैं। संभव है कि हम भी जब बड़े होंगे तो अपने बच्चों के लिए ये बात न सोच पाएं। लेकिन अगर कहीं से तो शुरुआत करनी होगी; उनके स्तर पर नहीं सही तो हम ही इस को बदल सकें। इन बातों का और कोई असर पड़े न पड़े काम से कम परिवार में बाप- बेटे में दुरी जरूर कम होगी। जोकि हमें अक्सर देखने को मिल जाता है।