कभी कभी सोचता हूँ कि आखिर हमें गुस्सा क्यों आता है। गुस्सा हमें तब आता है जब हम दुखी होते हैं। वो भी किसी ऐसी वजहों से जिनसे हम कुछ ऐसी उम्मीद लिए बैठे होते हैं जो कि पूरे नहीं होते। हम अपनी सारी उम्मीदें पूरी होते देखना चाहते हैं। मुझे याद है जब हमारे अंग्रेजी की क्लास में ग्रुप डिस्कशन होता था तो किसी ऐसे मुद्दे को चुना जाता था जो हमारे मन में घर कर रखा होता था। ऐसे ही किसी एक क्लास का एक मुद्दा ही यही था कि हम दुखी क्यों होते हैं। उसमे बहुत से तर्क आये लेकिन हमारे टीचर ने लास्ट में एक ही लाइन में सरे थ्योरी को ख़त्म कर दिया। लाइन भी नहीं एक शब्द में ही सारे आंसर थे। वो शब्द है "Expectation", "उम्मीद"!
कभी आपने सोचा है कि हमें दुसरे का व्यवहार अच्छा क्यों नहीं लगता? क्योंकि वो हमसे उस लहजे में पेश नहीं आता जिसकी हम उससे उम्मीद करते हैं। लेकिन समस्या एक और है। हम हमेशा अपनी ही नजरिया को तवज्जो देते हैं। कभी दुसरे की नज़रों से देखने कि कोशिश नहीं करते। हम कभी ये सोचने का कष्ट नहीं करते कि सामने वाला हमसे क्या उम्मीदें लगा बैठा है। हम अपने लिए तो सारे आदर और सत्कार चाहते हैं लेकिन वही आदर और सत्कार हम दूसरों को देने में आना-कानी करते हैं। कई बार हम मान चुके होते हैं कि उससे उम्मीद करना बेकार हैं फिर भी उम्मीद करना नहीं छोड़ते।