tag:blogger.com,1999:blog-50882996411709232872024-03-26T23:37:37.732-07:00A Page from my Diaryहर दिन लोग किसी न किसी ख़ुशी, मुस्कान या रंजो-गम से गुजरते हैं, कुछ यादें देती है तो कुछ सबक! ऐसे ही किसी दिन की किसी खास भावनाओं से कुछ सीख लेता हुआ कुछ यादें सहेजता हुआ मेरे जीवन का एक पन्ना !Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.comBlogger19125tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-38352896174849385562024-03-18T01:38:00.000-07:002024-03-18T01:38:43.819-07:00जीवांश का पहला जन्मदिन और पहली चिट्ठी<p dir="ltr">बेटा जीवांश,</p><p dir="ltr">आज तुम्हारा जन्मदिन है। तुमने एक वर्ष व्यतीत कर लिया अपने जीवन में। तुम्हे बहुत शुभ आशीर्वाद। पर सच पूछो तो जन्मदिन की बधाई और आशीर्वाद देने में भी मेरी धड़कने तेज हो जाती है क्योंकि कुछ यादें झकझोड़ देती है। आमतौर पर इस दिन लोग खुशियां मनाते हैं। हालांकि मुझे कभी ऐसा मौका नहीं मिला। पर इस पर कभी अफसोस भी नही हुआ क्योंकि यही सामान्य बात लगता है। मेरे लिए किसी दिन विशेष का कोई खास महत्व नहीं रहा। गांव के परिवेश में मेरे परिवार में किसी को मेरा जन्मतिथि भी नही पता होना भी आम बात थी। जब अपने युवावस्था में पहुंचा तो इक्ष्छा हुई कि अपना असल जन्मदिन पता चले जो कि कागजों से भिन्न है। बस मां को जितना याद था वो बताई कि दिन शुक्रवार था, अगहन महीना था, पंचमी था । मां ने बताया कि वो पढ़ी लिखी तो है नही कि लिख कर रखती, तारीख भी पंडित जी ने तुम्हारे छठी पर बताया था इसलिए याद है। मैने कहा पापा तो पढ़े लिखे हैं उनको भी तो कुछ याद नहीं कि मैं कब पैदा हुआ। बहरहाल मैने अपना जन्मदिन अंग्रेजी महीना में पता करने के लिए पंचांग देखना शुरू किया और जो तारीख मुझे समझ में आया मैने आगे से वो जन्मदिन सोशल मीडिया पर अपडेट किया ताकि मुझे उस दिन मुझे बधाइयां मिले। हां लेकिन कभी जन्मदिन मनाने की इच्छा नहीं हुई। केक काटना और भंडारा या अन्य कोई भी उत्सव मनाना तो दूर ही रहा। मुझे याद नहीं कि कभी मेरे जन्मदिन पर कोई विशेष आयोजन हुआ हो।</p><p dir="ltr">कुछ सालों बाद जब मेरी शादी तुम्हारी मां से हुई तो बहुत सी कहानियां बदल गई। चूंकि वो शहरी परिवेश में रही तो उसे अपना असली जन्मदिन पता भी था और मनाती भी थी जो अनवरत जारी भी रही। शादी के बाद मेरा जन्मदिन जब आया तो मैंने अनिक्षा ही जाहिर की किसी भी उत्सव को लेकर। और सोशल मीडिया से आने वाले संदेशों का आभार प्रकट करके ही मैं खुश था। पर शाम को तुम्हारे मामा केक लेकर आ गए और मैं मना नही कर पाया। मना करना अनुचित भी होता। छोटी छोटी खुशियां मना लेने में सुख होता है। पर एक बात जो उस दिन की आज भी टीस की तरह उभर आई वो ये कि जब मेरे पिताश्री को पता चला तो उन्होंने आशीर्वाद की जगह उम्र कम होने की हिदायत दे डाली। उन्होंने कहा कि इसमें खुशी की क्या बात है, एक वर्ष और कम हो गए जीवन में से। कई घंटो तक वो अपने मोबाइल पर ऐसे विडियोज चला कर आवाज तेज कर हमे सुनाते रहे जो इस बात को खिलाफत करता हो और बताता हो कि जन्मदिन खुशी नहीं शोक का विषय है। ये कसक शायद कभी न जाए मन से पर अपना लेना ही दुखों से मुक्ति देता है। मैने अपना लिया है पर कुछ खास मौकों पर यादें ताजा हो जाती है।</p><p dir="ltr">कितना सुंदर होता अगर हर मां बाप अपने बच्चों की खुशियों का जश्न मनाते। कितना सुंदर होता अगर मेरे साथ तुम्हारे दादा भी तुम्हारी तुम्हे दीर्घायु का आशीर्वाद देते। पर शायद ये संभव नहीं क्योंकि उन्होंने मेरे जन्मदिन पर मेरे उम्र से एक वर्ष कम होने की ज्यादा सनद रही है तो तुमसे अलग कैसे होगी। उन्होंने तो यहां तक भी कह दिया था तुम्हारी मां को कि मुझे कभी पुत्र न होगा। पर जब तुमने जन्म लिया तो मुझे लगा कि गलत उद्देश्य से दिया श्राप भी शायद भगवान निस्फल कर देते हैं। देखो आज तुम एक वर्ष के हो गए। आज जब तुम्हे देख तुम पर दुलार आता है तो साथ ही मन में अपने पिछले जीवन की घटनाएं भी याद आती है। पर ये सब किसी से कह नही सकता। पिछले ढाई साल से मैने किसी को कोई सफाई नही दी और चुप रहना चुना जो कि मेरे दादा की मुझे सलाह भी थी। इसके कुछ दुष्परिणाम ये हुआ कि जो झूठ फैलता गया वही सत्य बनता गया। जो मुझसे कभी न भी मिला उसे भी मेरे बारे में उलूल जूलूल पता है। मैं इन अवधारणाओं को तोड़ भी दूं अपने सत्य से पर हासिल क्या होगा। अनदेखा करके इन अवधारणाओं को कम से कम किसी को तो खुशियां मिल रही है। मैने कोसिस करके अपनी अपेक्षाओं पर काबू पाया है जो कि मुझे आगे बढ़ने में प्रबल सहायता देती है।</p><p dir="ltr">मैं तुम्हारे जन्मदिन पर आज ये यादें लिखने जा रहा हूं। शायद एक दशक बाद मैने फिर से कुछ मन का लिखा है। पहले काफी लिखता था। आज फिर से उसी गहनता और सच्चाई से लिख रहा हूं। शायद तुम मेरे अंदर की खुशियां यूहीं जगाते रहोगे। अगर दुख भी जगाओगे तो उसे खुशी में बदलने की कोसीस करूंगा ये तुमसे वादा है। तुम जब बड़े हो जाओगे तो इसे पढ़ोगे तो इसे कहानियों की तरह लेना। सीख मिले तो अपना लेना वरना अगली कहानी पढ़ने लग जाना। क्योंकि जीवन चलते जाने का नाम है।</p><p dir="ltr">तुम्हे अपने पहले जन्मदिन की बहुत शुभकामनाएं और शुभाशीर्वाद।</p><div>
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</div><br><p dir="ltr">तुम्हारा पिता</p><p dir="ltr">चंदन</p>Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-50524568300243829952016-12-24T05:02:00.002-08:002016-12-24T05:02:22.523-08:00Random Page, Saturday, December 24, 2016<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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कभी कभी सोचता हूँ कि आखिर हमें गुस्सा क्यों आता है। गुस्सा हमें तब आता है जब हम दुखी होते हैं। वो भी किसी ऐसी वजहों से जिनसे हम कुछ ऐसी उम्मीद लिए बैठे होते हैं जो कि पूरे नहीं होते। हम अपनी सारी उम्मीदें पूरी होते देखना चाहते हैं। मुझे याद है जब हमारे अंग्रेजी की क्लास में ग्रुप डिस्कशन होता था तो किसी ऐसे मुद्दे को चुना जाता था जो हमारे मन में घर कर रखा होता था। ऐसे ही किसी एक क्लास का एक मुद्दा ही यही था कि हम दुखी क्यों होते हैं। उसमे बहुत से तर्क आये लेकिन हमारे टीचर ने लास्ट में एक ही लाइन में सरे थ्योरी को ख़त्म कर दिया। लाइन भी नहीं एक शब्द में ही सारे आंसर थे। वो शब्द है "Expectation", "उम्मीद"!</div>
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कभी आपने सोचा है कि हमें दुसरे का व्यवहार अच्छा क्यों नहीं लगता? क्योंकि वो हमसे उस लहजे में पेश नहीं आता जिसकी हम उससे उम्मीद करते हैं। लेकिन समस्या एक और है। हम हमेशा अपनी ही नजरिया को तवज्जो देते हैं। कभी दुसरे की नज़रों से देखने कि कोशिश नहीं करते। हम कभी ये सोचने का कष्ट नहीं करते कि सामने वाला हमसे क्या उम्मीदें लगा बैठा है। हम अपने लिए तो सारे आदर और सत्कार चाहते हैं लेकिन वही आदर और सत्कार हम दूसरों को देने में आना-कानी करते हैं। कई बार हम मान चुके होते हैं कि उससे उम्मीद करना बेकार हैं फिर भी उम्मीद करना नहीं छोड़ते।</div>
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Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com58tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-80491350977344229782016-12-09T03:03:00.002-08:002016-12-09T03:03:47.684-08:00Random Page; Sunday, December 4, 2016<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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जीवन जीने के लिए जिस आत्मविश्वास की जरुरत होती है वो घर में हमें कभी नहीं मिल पाता। जो बच्चे घर से बहार रहकर पढ़ते हैं उनमें हमेशा उन बच्चों से ज्यादा आत्मविश्वास होता है जो बच्चे घर में रहकर ही पढ़ते हैं। </div>
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जो आज़ादी हमें जिंदगी को समझने के लिए घर से बाहर मिल जाता है वो घर में नहीं मिल पाता। अगर वो आज़ादी, वो माहौल, अगर घर में मिल जाये तो शायद घर से बहार जाने का किसी का मन नहीं करेगा। लेकिन वो सबकुछ घर में नहीं मिल पाता। कम से कम आज़ादी का वो एहसास तो नहीं ही होता है। यही कारण है कि जो एकबार घर से बाहर रह लेता है उसे घर में कुछ दिन बिताने पर ही घुटन महशुस होने लगती है।</div>
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ऐसा नहीं है कि हमारे पेरेंट्स ने इन बातों को महशुस न किया हो। वो भी जब पढाई या नौकरी के लिए घर से बाहर गए होंगे तो उन्हें भी इन बातों का एहसास हुआ होगा। लेकिन वो यही बात अपने बच्चों के लिए नहीं सोच पाते हैं। संभव है कि हम भी जब बड़े होंगे तो अपने बच्चों के लिए ये बात न सोच पाएं। लेकिन अगर कहीं से तो शुरुआत करनी होगी; उनके स्तर पर नहीं सही तो हम ही इस को बदल सकें। इन बातों का और कोई असर पड़े न पड़े काम से कम परिवार में बाप- बेटे में दुरी जरूर कम होगी। जोकि हमें अक्सर देखने को मिल जाता है।</div>
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Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-15174205563470944122016-05-19T09:40:00.001-07:002016-05-19T09:40:22.096-07:00आरक्षण (Reservation)<p dir="ltr">काफी अरसे से सोचता चला जा रहा हूँ कि ये बुरा है या अच्छा है पता नहीं क्या है। समझ से परे है। जब भी उच्च जाति (general class) के लोगों को इसको कोसते देखता हूँ तो फिर मन में आ जाता है कि कम से कम एक बार तो इसके बारे में ठीक ढंग से सोच विचार करना ही चाहिए। मेरे एक दोस्त ने तो मुझे इस मुद्दे पर लिखने के लिए इतनी बार बोल दिया कि रहा नहीं गया।<br>
वाकई जरा सोचिये कि आप हर विषय में सबसे बेहतर अंक हासिल कर लिए लेकिन आपको नौकरी इसलिए नहीं मिली क्योंकि आप जनरल कैटगोरी (उच्च जाति) से हैं तो कितनी ग्लानि महसुस होती है इन सिस्टम पर। यकीं मानिये मुझे भी उतना ही होता है। ये गलत सिस्टम है और गलत ही रहेगा।<br>
फिर आखिर ऐसा क्या अम्बेदकर के दिमाग में आया कि वो ऐसी व्यवस्था बना गए? कोसिस कीजिये आप संविधान सभा के बहसों को पढ़ने की। हल नहीं मिलेगा। इस भ्रम में रहिएगा भी मत। हाँ इस बात का कारण जरूर मिल जायेगा। जो ग्लानि आज आप नौकरी न पाकर इस व्यवस्था के लिए महसूस करे हैं ठीक ऐसी ही ग्लानि बाबा साहेब के हर बातों में आपको मिल जायेगी। कानून व्यवस्था से नहीं बल्कि सामाजिक व्यवस्था से। जिस पृष्ठभूमि से बाबा साहेब आते हैं उनके दर्द को अगर समझियेगा तो आपको कानून व्यवस्था से ज्यादा बुरा आपको सामाजिक व्यवस्था लगने लगेगा। और वो सामाजिक व्यवस्था है जाति या वर्ण व्यवस्था! हमारे समाज का एक ऐसा घाव जिसे उच्च जाति अच्छी मानते हैं और निम्न जाति के लोगों का शोषण होता है। ठीक उसी प्रकार या उससे भी विकट जिस प्रकार की कानूनी भेदभाव आप आरक्षण से महसूस करते हैं। ऐसा नहीं है कि अब ये सामाजिक व्यवस्था बदल गई है। जी नहीं बिलकुल नहीं बदली है। अब भी वैसा ही है। हाँ इतना जरूर हुआ है कि शहरी क्षेत्र में हमारे पीढ़ी के काफी लोगों को इस बात से अब कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हमारे दोस्त या सहकर्मी किस जाति के हैं। लेकिन ये वाकया सबके साथ नहीं है। उनमे भी आपको ऐसे लोग मिल जायेंगे जो खुद का उच्च जाति का होने का रौब जमाते हैं।<br>
ऐसा स्वाभाविक है कि मुझे जिस चीज़ से फायदा मिल रहा हो मैं उसका त्याग क्यों करूँगा। उदहारण के लिए मान लीजिये अगर कोई अम्बानी के घर पैदा हुआ है तो वो अपनी अम्बनीयत क्यों छोड़ेगा। ये उदहारण दोनों पे लागु होता है। उच्च जाति में पैदा लेकर सामाजिक स्तर पर लाभ पाने वाले और निम्न जाति में जन्म लेकर कानूनी स्तर पर लाभ पाने वाले। कभी इसका पलड़ा भारी होता है तो कभी उसका। गलत दोनों ही व्यवस्था है।<br>
आंबेडकर ने जाति व्यवस्था को तोड़ने के बहुत प्रयास किये। उसी प्रयासों में से एक है आरक्षण। इससे जाति व्यवस्था तो नहीं ख़त्म हुई लेकिन भेदभाव जरूर आ गया समाज में।<br>
कई लोग कहते हैं कि आरक्षण होना चाहिए लेकिन जाति नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर। आप खुद सोचिये कि अगर जाति ही न हो तो..., क्या इस आरक्षण का कोई मोल रह जायेगा? लेकिन ऐसा क्या है जो इस जाति व्यवस्था को नहीं तोड़ पाता? वो भी इतने प्रयासों के बावजूद। इसका जवाब सुप्रीम कोर्ट ने दिया है। जाति व्यवस्था को तोड़ने का सबसे अच्छा साधन है अंतर्जातीय विवाह! लेकिन ये आज भी हमारे समाज में मंज़ूर नहीं है (कुछ एक अपवाद को छोड़ दिया जाए तो)। और आप यकीं मानिए आप कितना भी कोसिस कर लीजिये जबतक कास्ट सिस्टम नहीं टूटेगा आरक्षण ख़त्म नहीं हो सकता।<br>
आपको लग रहा होगा कि शीर्षक दिया "आरक्षण" लेकिन बोले जा रहे हो वर्ण व्यवस्था पे। जी यही इस आरक्षण की सच्चाई है। कानून में एक कांसेप्ट होता है लिफ्टिंग ऑफ़ कॉर्पोरेट विल। उसको आप यहाँ पर लगाइये और आरक्षण का पर्दा उठाइये। आपको सिर्फ जाति दिखाई देगा। और अगर आप आरक्षण ख़त्म करने की चेष्टा रखते हैं तो आपको पहले वर्ण व्यवस्था को ध्वस्त करना होगा। और अगर आप पहले भेदभाव को नहीं ख़त्म कर सकते तो आपको दूसरे भेदभाव के लिए तैयार रहना चाहिए।</p>
<p dir="ltr">PS: मैंने किसी भी सूरत में आरक्षण को जस्टिफाइ करने की कोसिस नहीं की है। मेरे हिसाब से कास्ट & आरक्षण दोनी ही सिस्टम समाज में गहरी खाई पैदा कर रहा है। मैंने सिर्फ उसके कारण और समाधान ढूंढने का प्रयास किया है।</p>
<p dir="ltr">चन्दन, Chandan<br>
19.05.2016</p>
Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-65288036977981040532016-04-02T03:07:00.001-07:002016-04-02T03:22:09.856-07:00अवधारणा (Perception परसेप्शन)<p dir="ltr">बराबरी का हक़ (Right to equlity)......सुन के बहुत अच्छा लगता है न? किसी समाज सुधारक विचार को। लगना भी चाहिए। महिला पुरुष को बराबरी का हक़ मिलना चाहिए। अमीर गरीब को बराबरी का हक़ मिलना चाहिए। हर मजहब, हर जाति के लोगों को बराबरी का हक़ मिलना चाहिए। मैं भी इसके खिलाफ नहीं हूँ लेकिन क्या है कि जब भी इन सबके लिए लड़ने वालों को या आवाज़ उठाने वालों को देखता हूँ तो बहुत निराशा होती है। उनके इन मांग में भी बराबरी नहीं होता बल्कि स्थिति को उल्टा करने की प्रविर्ती होती है। अगर महिलाओं के लिए आवाज़ उठा रहे हैं तो उन्हें पुरुष से ज्यादा शक्तिशाली बनाने की चेष्टा रखते हैं। अगर गरीब के लिए आवाज़ उठा रहे हैं तो उन्हें अमीरों पर हुक़ूमत की आज़ादी चाहते हैं। अगर निम्न जाति के लिए आवाज़ उठा रहें हैं तो उच्च जाति पर हुक़ूमत चाहते हैं। मान लीजिये ऐसा हो जाये कि सबकी मांग पूरी हो जाए। तो क्या होगा? सबको बराबरी का हक़ मिल जायेगा? या फिर सिर्फ पक्ष बदलेगा? लड़ाई तब भी चलती रहेगी बस वादी और प्रतिवादी के स्थान बदल जायेंगे।<br>
अक्सर मैंने देखा है कि अगर किसी महिला और पुरुष के बीच, अमीर और गरीब के बीच, एक धर्म के लोगों का दूसरे धर्म से, या फिर उच्च जाति का निम्न जाति से विवाद होता है तो पुरुष सारी जिम्मेदारी महिला पर थोप देते हैं और महिला सारी जिम्मीदारी पुरुष पर, अमीर गरीब पर और गरीब अमीर पर, हिन्दू मुसलमान पर और मुसलमान हिन्दू पर, उच्च जाती निम्न पर और निम्न उच्च पर। कौन सही है कौन गलत है इससे किसी को कोई लेना देना नहीं है। बस पहले से एक परसेप्शन बना हुआ है एक दूसरे के प्रति, उसी ढर्रे पर दोनों अपना फैसला सुना देते हैं और उसी फैसले, जिसका की आधार ही गलत है, के बुते अपना सारा निर्णय लेते हैं। कुछ इन्ही सब वजहों से मुझे कानून के शब्द "प्राइमा फेसी" से नफरत होने लगा है। हाँ इस बात को मानता हूँ कि किसी एक का दूसरे पर डोमिनेन्स हो सकता है और इस बात का वो फायदा भी उठा सकता है। लेकिन सर इसी बिनाह पर कि कोई डॉमिनेटिंग स्थिति में है तो वो गलत किया होगा ये जरुरी नहीं है। कानून को कभी किसी ने गाइड की तरह माना कब है? उसका रोल तो तब आता है जब घटनाएं घट जाए या फिर न घटे तो कृत्रिम कहानी बनाकर ब्लैकमेल करना हो।<br>
हमारे यहाँ इस तरह की हर लड़ाई का आधार यही है कि जो ऊपर है उसे निचे ला दो और जो निचे है उसे ऊपर। आरक्षण को ही देख लीजिये। इसमें व्यवस्था ये होनी चाहिए कि सब को बराबरी का मौका मिले सब बराबरी में आ जाये लेकिन व्यवस्था ये है कि दूसरे की जगह दूसरों को दे दो। महिला सुरक्षा क़ानून को ही देख लीजिये। व्यवस्था ये होनी चाहिए कि पुरुष और महिलाओं में अंतर न किया जाए लेकिन व्यवस्था ये है कि पुरुषों को प्राइमा फेसी गलत मान लिया जाए। बाकी और भी कई उदाहरण है आप दिन भर बैठ कर सोचते रहिएगा।<br>
आप महिला, माइनॉरिटी आदि को लेकर अक्सर बहुत कुछ पढ़ते होंगे और आप खुद सामाजिक मानसिक रूप से जागृत समझने लगते होंगे खुद को। हाँ ये अलग बात है कि आपने कभी दूसरे पक्ष को जानने की हिमाकत नहीं की होगी। अगर ऐसा है तो फिर सावधान हो जाइए क्योंकि हो सकता है आप गलत आधार पर निर्णय ले रहे हों और बाद में पश्चाताप हो। सबकुछ जो हमारे सामने पेश किया जाता है वैसा वाकई में होता नहीं है।<br>
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चन्दन chandan <br>
<a href="tel:02042016">02-04-2016</a><br>
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Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-16054006016675922382016-02-05T05:53:00.002-08:002016-02-05T05:53:34.613-08:00पत्र तुम्हारे नाम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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इस बात की नाराजगी नहीं है कि तुमने अलविदा कह दिया। नाराजगी इस बात से है कि तुम्हे इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। हालाँकि मेरा मन अभी भी इस बात की गवाही देने को तैयार नहीं है कि तुम सच में खुश हो या तुम अपने ख्वाहिसों को दबा नहीं रही। खैर, मैं अंदर से कुछ भी मानु उसे कर्म का रूप तब तक नहीं दे सकता जब तक कि तुम खुल कर या इशारों में भी इस बात की पुष्टि न कर दो। समय के साथ मनुष्य खुद को ढाल ही लेता है। तुम भी ढाल ही लोगी। लेकिन ये तो भविष्य की बातें है। अभी अगर तुम्हारे दिल के किसी भी कोने में रिश्तों की अहमियत बाकि है तो एक हामी की देरी है। डरो मत कि आगे क्या होगा, हम रास्ता बना लेंगे। बस एक बार कह दो कि तुम्हे हमसे मोहब्बत है। अगर नहीं है मोहब्बत तो कुछ सवालों का जवाब ही दे दो। वो क्या था जब तुमने कहा था कि तुम्हे सिर्फ मुझसे मोहब्बत है? क्या तुम झूठ बोल रहे थे? अगर झूठ बोल रहे थे तो वाकई तुम्हारी रिझाने की कला की दाद देता हूँ। लेकिन अगर वो बातें उस वक़्त सच थी तो फिर किसी की चाहत इतनी बदल कैसे सकती है? मेरी चाहत में तो गाढ़ता आ गई तो फिर तुम्हारी कैसे धुंधली हो गई? धुंधली भी नहीं मिट ही गई। मुझे शिकायत नहीं है तुमसे। बस समझना चाहता हूँ इस संसार को। अगर हार मिली तो कबूल करने में परेशानी नहीं है। लेकिन हार की वजह भी न जान सका तो ज़िन्दगी भर मलाल रहेगा। और शायद ये विश्वास भी कि तुम लौट कर आओगी। चली जाना, मैं रोकूँगा नहीं पर पहले मुझे इस बंधन से तो मुक्त कर दो। मुझे कोई कहानी नहीं सुननी है तुमसे। उम्मीद है तुम सुनाओगी भी नहीं। सिर्फ सच जानना चाहता हूँ । चाहे वो कितनी ही कड़वी हो। मुझमे सच हजम करने खूबी बहुत है ये पता है तुम्हे। मलाल तो और भी है पर वो सारी बातें छोटी पड़ जायेगी अगर सच जान गया तो। बस एक बार अपनी कहानी तुम अपने मन से सुना दो। जो तुमने सुना, सोचा, कहा या फिर महसूस किया। जो भी तुम्हारे मन में एहसास जगे और फिर धूमिल होते गए। सब सुना दो। हक़ीक़त सुना दो। अपनी कहानी सुना दो। जो शायद तुमने कभी किसी से नहीं कहा होगा, अपने मन में दबा रखा होगा। बस एक बार मुझको बता दो। इस बात का भी ज़िक्र करना कि तुम छुप कर बातें करते थे मुझसे। इस हद तक ज़िक्र करना कि कैसे गर्मियों में भी कम्बल ओढ़ते थे सिर्फ इसलिए कि गुफ्तगू करनी थी मुझसे। ये भी बताना कि पूछता था मैं तुमसे "मेरी बनोगी न?" जवाब भी बताना जो तुम कहा करते थे "जरूर बनूँगी! ग़र आपकी नहीं तो किसी की नहीं"। उस डायरी के पन्ने भी सुनाना जिनमे तुम मेरा नाम लिखती थी और काट देती थी। ये भी बताना कि जिस डायरी में तुम अपने जज्बात लिखती थी उसमे मेरी बातों ने कैसे जगह ले लिया। सच बताना! कहानी मत सुनाना। हो सकता है तुम्हे ये सब सुनाने में असहज लगे तो मुझे मत सुनाओ। उसे सुना दो जिसके साथ ये बातें करने में सहज हो और कहो उससे कि वो मुझतक पहुंचा दे। मुझे यकीं है, नहीं होगा कोई मेरे सिवा जिससे तुम अपने जज्बातों की इस गहराई को सुना सको। पर इतना मत सोचो, मैं तो हूँ जिसे तुम सुना सकती हो। मुझे ही बता दो। लिखकर ही बता दो। फिर से गुज़ारिश करता हूँ तुमसे मुझे जिंदगी भर के लिए जज्बाती अपाहिज मत बनाओ। तुम अपने जज्बात सुना दो, मेरे हार को वजह मिल जायेगी और मैं आगे बढ़ पाउँगा। हाँ लेकिन बनावटी कहानी मत सुनाना। सच बताना।</div>
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तुम्हारा<br />
चन्दन</div>
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Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-42149588124969943922016-01-14T19:53:00.000-08:002016-01-13T19:53:57.585-08:00हैप्पी फलाना डे !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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इक अजीब सी आदत देखता हूँ लोगों में, पश्चिमी सभ्यता का असर ही सही, किसी भी दिन के आगे हैप्पी लगा के विश कर देते हैं। शुक्र है कि मरे हुए लोगों से सम्पर्क नहीं कर सकते नहीं तो लोग उन्हें भी उनके मरने की सालगिरह मानते हुए "हैप्पी डेथ डे" विश कर देते। नहीं, ख़राब आदत है मैं ये नहीं कहता और मैं ये तय करने वाला होता भी कौन हूँ लेकिन और भी मौजूद तरीके को अपना सकते हैं जो इससे बेहतर शुभकामनाये देने में सक्षम हो सकती है। आज मकर संक्रांति है। बहुतों को नहीं पता कि ये आखिर होता क्या है। पता है तो बस इतना कि आज पर्व है और "हैप्पी मकर संक्रांति" विश कर दिया। शुक्र है कि लोग क्रिश्मश के दिन "मैरी क्रिश्मश" ही विश करते हैं। ये अलग बात है कि "मैरी क्रिश्मश" ही क्यों बोलते हैं ये बात बहुतों को नहीं पता। सच पूछिये तो मुझे भी नहीं पता। अगर आपको पता हो तो मुझे जरुर बताईयेगा। वैसे ये जरुरी तो नहीं कि हर वो दिन जिसे विश किया जाता है वो हैप्पी ही हो। अनहैप्पी भी तो हो सकता है। खैर हो सकता है कि जो भी हमें विश करते हैं वो शायद हमारा अनहैप्पी कभी न चाहते हो इसलिए हमेशा हैप्पी ही विश करते हैं। जरा रुकिए ! एक बार फिर से मेरे पिछले वाक्य को पढ़िए। क्या सच में जितने लोग हमें विश करते हैं वो हमारा अनहैप्पी कभी नहीं चाहते? पता नहीं। हो सकता है। मुझे नहीं पता।</div>
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<br /></div>
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इससे पहले कि आप मुझपर इल्जाम लगायें कि मैंने सिर्फ सवालों को खड़ा कर के छोड़ दिया है, मैं आपको बता दूँ कि मैंने कोई सवाल नहीं खड़े किये हैं। मैंने सिर्फ अपने मन में कई वर्षों से इकठ्ठा हुए भड़ास को बाहर निकाल दिया ताकि अगर आप ने भी कभी ऐसा सोचा हो तो आप हिम्मत कर सके बोलने की। फिर भी अगर मैं अपना अल्टरनेटिव उपाय ना बताऊँ तो नाइंसाफी होगी। इसलिए कहे देता हूँ। अगर आप वाकई में खुश हैं और दूसरों को खुशियाँ बाँटना चाहते हैं तो उन्हें बांटिये जो इन खुशियों के लिए तड़प रहे हैं। और विश करके नहीं उन्हें सच में खुश करके। क्योंकि विश करने का आशय ही होता है कि आप रब से ऐसा चाहते हैं। लेकिन रब के सामने कभी किसी को मैंने दूसरों के लिए खुशियाँ मांगते हुए नहीं देखा है। सिर्फ अपने लिए मांगते हैं। हाँ.., याद आया, फिल्मो में देखा है दूसरों के लिए भी मांगते हुए। वैसे भी, मैं तो ठहरा नास्तिक मैं खुद के लिए नहीं मांगता तो दूसरों के लिए क्या मांगू। मैं तो दूसरों को खुश देखता हूँ तो अच्छा लगता है फिर कुछ ही क्षणों में लगता है कि ये खुशियाँ मुझे भी मिलनी चाहिए मतलब कि अगर दुसरे शब्दों में कहें तो थोड़ी बहुत इर्ष्या भी होती है। चलिए.... मेरी बातें आप कब तक बर्दाश्त करते रहिएगा। जाईये तिल और गुड खाईये।</div>
</div>
Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-19594441739696854142015-04-23T11:24:00.000-07:002015-04-23T11:41:40.647-07:00Ethics Vs. Professional Ethics<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
A CA knows that his client have two wives and he is cheating with both. Should that CA hide this? answer would be "No". Will that CA hide this? answer is "Yes".</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
A Lawyer knows the fact that his client is involved in illegal activity. Should the lawyer defend him? the answer is "No". Will the lawyer defend him? answer is "Yes".</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
A Doctor knows that his patient is criminal or country's enemy. Should the doctor operate him? answer is "No". Will the doctor operate him? Answer is "Yes". </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
They should not but they will. Why? have you ever tried to find out the reason? Yaa...In movies, you might have heard of doctor that they are given an oath that they will not see the background of the patient. Right, that's the reason. Morally, CA should not hide but that's their professional ethics which binds him to do so. Morally Lawyer should not defend criminal but that's their professional ethics which binds him to do so. Morally, Doctor should not operate but that's their professional ethics which binds him to do so. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
The above cases are just a small example of profession as well as incidents. There are lot of profession which are governed by some statutory body and they have issued some code of ethics which binds the persons of that profession to do an act not to do an act. If a person doesn't follow that code or rules, they may even be barred from the profession. I, sometimes, see this like a caste system where you have to follow the rules of caste. If you go beyond that rules, you may be barred from the caste even if your act may be in public interest.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
Suppose your client is involved in terror activity, you should inform the cops in public interest but the professional ethics which give emphasis on "confidentiality" let you keep your mouth shut. At most, what you can do is to break the relationship with client but still you are required to maintain confidentiality.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
One another example which I can't resist to let you know is Journalism. If someone is being killed, they can take their life at chance to record the incidents but can't risk their life to save one's life.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
when you think something is in public interest is morality/ethics but when you deny the public interest and able to justify yourself that's professional ethics. This definition may be controversial but that's the truth. A lot of time, Ethics which govern our personal behavior and professional ethics which govern our professional behavior are of conflict. And, obviously, we prefer to choose professional ethics.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
Can't these ethics and professional ethics be homogeneous? Can't those be used complementary instead of substitutes?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
-</div>
<div style="text-align: justify;">
Chandan</div>
<div style="text-align: justify;">
23.04.2015</div>
</div>
Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-59236541035946784812015-02-17T09:46:00.003-08:002015-02-17T11:06:12.819-08:00Molestation in Delhi Metro<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
Today on the eve of Maha-Shivratri, I would have talked on some other matter uttering the power of Lord Shiva or people and their faith in Lord Shiva or some of the memories of childhood related to Shivratri But Today's incident in Delhi Metro didn't let me.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
I was travelling in Delhi Metro today. It was around 10:55 AM, when I reached at Kashmiri Gate and changed the Metro from Red Line to Yellow Line towards Rajiv Chowk. <i>Getting a seat in Delhi Metro is tedious task so I usually keep myself leaned to a pole in the middle of the Metro or occupy one of the two side place immediately against the door which gives comfort not only me but lots of passenger.</i> I was leaned on a pole immediately the gate.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
A group of three girls were occupying both the side place of the gate, two on the right side and one on the left. As the metro reached Chandni chowk, A girl from right moved to her another friend on the left. The Metro left the Chandni Chowk Station towards Chavri Bazar. But in the middle of these two station, a gentleman, may be aged of my father, stood up and started to shout & beat a young boy, may be aged in 20is,. Using a rude behavior and wrong/abusive word distracted not only me but almost all the people there.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
As he kept beating & using such words, we went into the scene to resolve the issues being totally unknown to the issue. Then he could merely say all the incident, "The boy tried to touch his lower parts with the girls hand, then he unzipped and took out his penis and tried to make see the girl to his private part, as soon as Iiiiii... saw this disgusting scene, i became out of control". I was totally shoked with his words and could not imagine the scene as it was bothering me.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
The people took to participate and started to beat him badly including me. some of them said to handover him to the police but I was in different thinking which I could not done through. I thought why not to cut his penis which he dared to took out to do such shameful act in the public not scared of the hundreds of people around him.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
Facing all these act, the train arrived at Chavri Bazar station and he was handed over to the cops. The train moved ahead. But the scene inside the Metro was..... The girl was too scared and started to cry.....Lot of people tried to console her. All the scene was flashing in my mind not only during my journey but in class as well. I shared all these incidents to my friend in the class. I could see tears in his eyes.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
I don't know what would the police be doing with him. I think they will be leave him after beating till public satisfaction there. But yaar.... how can anyone do this... It's not first case but I have read similar incident on Facebook and who are not aware of viral mms which media was showing months before? Nothing to say except "Must react, if any incident happens with you... the people are not numb, they will support you. I will support You, We are with you".</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
-Chandan</div>
<div style="text-align: justify;">
17.02.2015</div>
</div>
Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-15776668745616913882015-01-25T02:46:00.000-08:002015-01-25T02:46:09.892-08:00Do you wanna say something? Oh Sorry! not interested<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
A lot of people, I have come across, have something to say but possess nobody who can peacefully listen to them. Sometimes I also find myself in that list. As a matter of pride, India consists more than 60 % of its population to be youth. But they are bound by their limitations being scarceness, respect for elders who often are of traditional views and can never listen/tolerate any new ideas or wish etc.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
Imagine a friend who can listen to you whatever may be the topics... whatever you possess in your heart but could not share it for whatever reasons. Yes! it is possible. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
When I was in Darbhanga, I was attached to some of the people because of their unbiased opinion and support for any need- financially, emotionally of otherwise. Before leaving there, I took autograph of some of them for inspiration in coming future. One of them wrote a beautiful line on my diary as-</div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjwiqUlxK8OHv2HgwJ4D4rTqio_RwVjlOzyMELKruFD34qPeLv1c5LbQ6vy59T4PEW2jrPg6BKWDoOmVxtK6oO5PA_dC-b_weW_PU-twDPPWVNjnBat3ZRK-aUDiB6AR8VlwvWIX8UuS4Y0/s1600/2015-01-25+15.32.18.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjwiqUlxK8OHv2HgwJ4D4rTqio_RwVjlOzyMELKruFD34qPeLv1c5LbQ6vy59T4PEW2jrPg6BKWDoOmVxtK6oO5PA_dC-b_weW_PU-twDPPWVNjnBat3ZRK-aUDiB6AR8VlwvWIX8UuS4Y0/s1600/2015-01-25+15.32.18.jpg" height="193" width="640" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Autograph cuttings from my Diary</td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<i>"We are always in search of a true human being;</i></div>
<div style="text-align: center;">
<i>I wanna convey, make yourself so good or efficient that you need not to search any other person"</i></div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
Yes, it was first solution to above problem. Make yourself such humble human being or friend that people around you don't feel such scarce. Gradually you will be out of that phenomena.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
Though, there are some issues which you find nobody fit for to share with. Then I have some the ideas which, if you follow, may be a turning point for you to make any complain about people. Some of the activities which I personally follow-</div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<ol>
<li>writing such issue in diary,</li>
<li>making a poem thereon,</li>
<li>making a story out of it,</li>
<li>publishing them on Blog and sharing on social networking sites.</li>
</ol>
<div style="text-align: justify;">
I have insisted almost all my friends to create a blog and share their thought. Yaa...Some of them have joined and some of them have not. But whoever have joined and started sharing their writings have positive response and thank me.</div>
</div>
Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-12632198396967423142014-12-13T23:39:00.001-08:002014-12-13T23:39:46.286-08:00A Chapter from "Jara si Life" a radio show hosted on Fever 104.8 FM by Richa<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
I was turning pages of my diary and I found a page which I wrote while listening a Radio Channel "Fever". I sometime get opportunity to listen to such a wonderful show. There was a incident which a took noted in my diary. The story was told by a girl, her own story, but I could not find the character who should be blamed. Please help me to locate the person to be blamed with logic.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: xx-small;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
There is a girl who fell in love with a boy but their parents were against that marriage. She elope with him and got married.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: xx-small;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
They were residing in a city but were not settled. After few days the money with him were spent and there were no way to run the life. The boy realized that he had did a big mistake, it should not had been done and now he should go back to home. The girl had no option but to go back.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: xx-small;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
Girl's parents decided to get her married as soon as possible with any boy whatever and arranged with a NRI guy.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: xx-small;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
After one and half year the girl came to know the guy she had been married to was already married and had no children due to which he got married again. The shocking part was that the girl's parents knew all the facts but didn't tell her. But now, she has no option rather just to pass her entire life in sadness.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: xx-small;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
I don't know the entire scene. This was what all she said to Richa.</div>
<div style="text-align: justify;">
After brief facts of the story, examine the facts and state who is guilty?</div>
</div>
Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-81217409057032948382014-08-25T09:28:00.001-07:002014-08-25T09:43:01.059-07:00माँ का प्यार: अनसुलझी रहस्य<p>कहते हैं न की किसी के महत्व का अहसास तब होता है जब वो हमारे पास न हो। सही है शत-प्रतिशत सही है। उसी न होने में एक अहसास माँ का पास न होना भी है। स्मरण है मुझे जब भी माँ पास होती है तो किसी बात को छुपाना बड़ा मुस्किल होता है खासकर अगर वो पीड़ा हो। किसी भी अनियमित व्यवहार को बिना बताये परख लेती है माँ। लेकिन वही व्यवहार अगर किसी और के सामने हो तो परखना तो दूर पर प्रश्न जरूर उठ जाते हैं।कभी कभी सोचता हूँ कि हर स्त्री कभी न कभी किसी किसी की माँ कहलाने का सौभाग्य प्राप्त करती है । ऐसा क्या है जो उसे अपने संतान से इस तरह जोड़ देती है कि उसे अपने संतान के हर पीड़ा की अनुभूति पहले ही ज्ञात हो जाती है? ऐसा भी नहीं कह सकता कि उनका यही प्रेम हर मनुष्य के लिए होता है। जो अगाध प्रेम माँ का अपने संतान से होता है , जिस मनसा से वो अपने संतान का रक्षण करती है, वही मनसा अगर सबके साथ हो तो कैसा होगा? शायद किसी को माँ की कमी का अहसास नहीं होगा, शायद किसी को पीड़ा बताने का कष्ट न करना पड़ेगा, शायद किसीको किसी स्त्री के प्रति संदेह ना होगा, शायद किसी स्त्री के मन में किसी से इर्ष्य ना होगी। पर जानता हूँ ये मुमकिन नहीं है। अगर संसार में बुराई है तभी अच्छाई का महत्व है। अगर किसी के मन में इर्ष्या है तभी शायद प्रेम का भी महत्व है। बातें समाप्त नहीं हुई है, सवाल और भी हैं पर जेहन में है...</p>
<p>-Chandan</p>
Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-48446465677926232912014-08-15T10:03:00.000-07:002014-08-15T10:03:09.161-07:00आज़ादी के कुछ रंग मेरी नज़रों से...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
हर साल इसी दिन, गीतों या भाषणों में ही सही, सब अपने देश को याद करते हैं| कुछ रंग मैंने भी देखे हैं इस आज़ादी के तो सोचा की साझा करूँ आपसे कुछ ऐसे रंग जो आज सोचने पर मजबूर कर दिया...<div>
<br /></div>
<div>
एक रिक्से वाले से स्वतंत्रता दिवस की बधाई देते हुए पूछा कि उनको कैसा लग रहा है, जवाब निरासा-जनक था- " आज की छुट्टी होती ही क्यों है ? सवारी मिलता ही नहीं! अगर आज नहीं कमाया तो शाम को बच्चों को क्या खिलाएंगे?"</div>
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<br /></div>
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काफी कहूँ तो नाइंसाफी होगी लगभग सभी दोंस्तों से स्वंतत्रता दिवस की मुबारकबाद आई पर एक सन्देश ने चौंका दिया- " bad news for Bihar यही अच्छे दिन आने वाले थे अब बिहार में साला एक मुसहर तिरंगा फहराएगा"</div>
<div>
<br /></div>
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आज भर के लिए भिखारियों को पुलिस हर बार सड़कों से हटा देती है | मेट्रो, सड़क, रेड लाइट कहीं भी भिखारी नज़र नहीं आया| क्या ये हमेशा के लिए नहीं हट सकता| सबको पता है की इन भिखारियों के माध्यम से कुछ गिनती के लोग पैसे कमाते है, भिखारी लोग तो बस उनके यहाँ नौकरी करते हैं जिसके बदले उसे दो वक़्त की रोटी मिल जाती है|</div>
<div>
<br /></div>
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प्रधानमंत्री का भाषण सुना, काफी अच्छा लगा हालाँकि उम्मीदें और भी बहुत थी कि वो अपनी काम की बातें करेंगे लेकिन वो देश को घर के मुखिया की तरह समझा रहे थे | हर नागरिक को उसकी जिम्मेदारियों का अहसास करा रहे थे | ये अपनापन देख कर कुछ देर को लगा की ये संबोधन लाल बहादुर शास्त्री जी कर रहे हैं| लेकिन फिर भी निराशा हैं कि जो बातें उन्होंने कहा उनपर कितना अमल लोग करेंगे| फिर से कल वही सुबह होगी और फिर वही दुनिया देखने को मिलेगा " मेरा क्या मुझे क्या, तू हिन्दू तू मुसलमान, तू ब्राह्मण तू शुद्र"</div>
<div>
<br /></div>
<div>
सम्पूर्ण आज़ादी तो सही मायने में नहीं मिली है अभी बहुत से कार्य करने बाकी हैं| मैं कोई सलाह नहीं देना चाहता बस इतना याद रखिये इस देश को बनाने में आपकी एक कदम बहुत मायने रखती है | गीतों में ना सही, किसी दिवस पर ना सही पर अपने कर्म में देशभक्ति लानी जरूरी है| जाति, धर्म, लालच से ऊपर उठने की जरूरत है |</div>
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Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-14046932591197799622014-05-11T06:37:00.000-07:002014-05-11T06:42:03.331-07:00अस्पताल के बिस्तर से...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
बाहर मौसम बहुत सुंदर है, हलकी ठंडी हवा बह रही है और कभी कभी बूंदा-बूंदी बारिश भी हो रही है| देखता हूँ खिड़की से बाहर दो बच्चे खेल रहे हैं सड़क पर - कभी बारिश के बूंदों का अहसास लेकर कभी ठंढी हवाओं का आह भरकर| मेरा भी मन कर रहा है बारिश में भीगने का, हवाओं को महसूस करने का लेकिन मैं बाहर नहीं जा सकता, डाक्टर ने मना किया है कहते हैं की मैं बाहर नहीं जा सकता , मैं उठ नहीं सकता, मैं उनकी बात सुन कर खामोश रह जाता हूँ | मुझे पिछले एक महीने से इसी कमरे में बंद कर दिया है तब से न सूरज को देखा न ही रात में अपना आकर बदलते चाँद को| सब लोग कहीं चले गए हैं किसी की आवाज़ भी नहीं सुनाई देती है| मैंने माँ से पूछा तो कहती है कि मैं बीमार हूँ इसलिए डाक्टर ने सोने के लिए कहा है जब तक की मैं ठीक नहीं हो जाता| मुझे क्या हुआ है? माँ कहती है कि कुछ नहीं बस मैं थक गया हूँ न इसलिए कुछ दिन आराम कर लूँगा तो ठीक हो जाऊँगा| सुबह- सुबह मुझे उठाया जाता है मेरे बिस्तर बदले जाते हैं और फिर मुझे सब दोबारा सुला देते हैं| मेरे दोस्त आये थे मिलने मुझसे, कह रहे थे बाहर मौसम बहुत अच्छा है लेकिन मुझे नहीं पता कितना अच्छा है| अस्पताल के बाहर एक पेड़ है, खिड़की से देखता हूँ तो उसके पत्ते तेजी से हिलते दिखाई देते हैं लेकिन मुझे उस पत्तों की सरसराहट भी सुनाई नहीं देती| डाक्टर ने खिड़की खोलने मना किया है| डाक्टर कहते हैं कि बाहर कभी ठण्ड और कभी गर्मी हो रही है जो कि मुझे और भी बीमार कर सकती है| लेकिन सभी तो खेल रहे हैं बाहर तो फिर मैं क्यों नहीं? मैं सुबह से शाम और शाम से सुबह तक बिस्तर पर लेटा रहता हूँ, माँ खाना लाती है और अपने हाथों से खिलाती है, मैं अपने हाथ से नहीं खा सकता, मेरे हाथ में हमेशा सुईं चुभी रहती हैं| लेकिन अब मैं माँ से रूठा हूँ, मैंने दो दिन से बात नहीं किया है माँ से क्योंकि मुझे हमेशा खिचड़ी देती है खाने के लिए, कहती है कि मैं मिर्च मसाले नहीं खा सकता लेकिन पहले तो खाता था तो अब क्यों नहीं खा सकता? बचपन में मुझे जब बुखार लगता था तो दादा जी चावल खाने से मना कर देते थे तब मुझे ना मेरी मम्मी चुपके से गरम-गरम चावल खिलाती थी और मैं ठीक हो जाता था | माँ को पता है मुझे चावल बहुत पसंद है और साथ में तीखी सब्जी| सब आपस में बात करते हैं कि मैं बीमार हूँ| कल भी गाँव से फ़ोन आया था, मेरी माँ ने बताया कि मैं अभी एक सप्ताह और अस्पताल में रहूँगा| लेकिन तब तक मौसम फिर से बदल जायेगा और मैं इस मौसम को महसूस नहीं कर पाऊंगा| लेकिन आज डाक्टर ने सुबह सुबह मेरी माँ को बुलाया था और माँ मुझे अकेला छोड़ कर चली गई थी और वापस आई तो मैंने देखा कि माँ की आँखे नम थी| मैंने पूछा तो बोली कि रो नहीं रही थी मुह धोकर आई है इसलिए आँख भींगी हुई है और डॉक्टर ने कहा है की मैं कल अस्पताल से जा सकता हूँ| मैं कल का इंतज़ार कर रहा हूँ, कल से मैं फिर से सबकुछ खा सकता हूँ और हाँ मुझे बारिश में भी भीगना है लेकिन ये रात जल्दी जाती क्यों नहीं, मुझे लगता हैं कि भगवान ने दो-तीन रात मिलाकर ये रात बनाई है| लेकिन अब मुझे बहुत जोर से नींद आ रही है लेकिन मैं सोना नहीं चाहता, कल का सुबह देखना है मुझे और अगर सो गया तो जल्दी नहीं उठूँगा| माँ हमेशा कहती है कि मैं सुबह देर से उठता हूँ| लेकिन मुझे बहुत तेज नींद आ रही है और मैं अपनी आँख अब और खुली नहीं रख सकता...<br />
<span style="font-size: large;">© Chandan</span></div>
</div>
Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-31479879120248300352014-04-08T21:40:00.001-07:002014-04-10T01:36:01.693-07:00जाति-पाति रंग-रूप और पैसा भाग-१<p>मैं एक बार किसी महात्मा से मिला या यूँ कहें कि अपने कुलगुरु से मिला जो हमेशा मुझे नास्तिक समझते हैं। मैंने उनसे कुछ साधारण से सवाल किये कि जाति-पाति का क्या महत्व है? उन्होंने कहा जाति होता क्या है भगवन ने हमें सिर्फ इंसान बनाया और हम सिर्फ इंसान हैं न हिन्दू न मुस्लमान। मैंने पूछा की क्या यह सिर्फ कहने-सुनने की बातें है या धरातल पे भी है? उन्होंने कहा हाँ बिलकुल है। मैंने फिर पूछा क्या अगर मैं किसी मुस्लिम कन्या से विवाह करूँ तो आपकी मंजूरी होगी? उन्होंने कहा - विवाह स्वजातीय होनी चाहिए।<br>
ठीक यही सवाल मैंने उनके परम शिष्य से पूछा उनका जवाब था - धरातल पे विरले ही देखने को मिलता है लेकिन सच यही है की हम सिर्फ इन्सान हैं। और अगर आप किसी भी कन्या से विवाह करें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। <br>
मुझे पता चला की गुरु जी  अपने उस परम शिष्य के लिए कन्या की तलाश में हैं। मैंने जानने की कोशिस की कि उनका मापदंड क्या है किसी कन्या को चुनने का। पता चला कन्या गोरी होनी चाहिए, पढ़ी लिखी होनी चाहिए,  और तो और उन्हें एक चार चक्का गाड़ी की भी दरकार थी। मुझसे रहा न गया मैं फिर उनसे सवाल किया। गुरूजी , आपके मापदंड में गोरी होना क्यों अवश्यक है?  अगर कोई काली या सव्न्ली है तो उसमे उसका क्या दोष? जवाब में वो गुस्सा कर गए- मुझे तुम व्यावहारिकता का ज्ञान मत दो मुझे इस चीज़ की समझ अच्छी है।और आध्यात्मिकता को इससे मत जोड़ो।<br>
मेरे समझ में ये आजतक नहीं आया कि दोनों स्वतंत्र कैसे हो सकते है? आप इस दुनिया में रहते हैं तो व्यावहारिकता से बच नहीं सकते और अगर किसी का खून करना व्यवहारिकता में गलत है तो अध्त्यम इसे सही करार कैसे दे सकती है?<br>
मेरे सवालों का जवाब तो नहीं मिला लेकिन एक सलाह मिली उनके परम शिष्य से कि आप ओशो का अध्यन कीजिये आपको जबाब मिलेगा। ओशो को तो नहीं पढ़ सका अब तक कोशिश जरूर करूँगा जबाब जानने की।<br>
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Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-28500055520262302952014-03-08T09:40:00.001-08:002014-03-08T09:41:25.080-08:00Saturday, March 08, 2014<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जब भी खुद के साथ वक़्त बिताता हूँ या बिताने का मौका मिलता है तो लगता है जैसे की मैं किसी राह में फंस गया हूँ। ये घर और ये आवाजें उस रात में चलती रेलगाड़ी से बाहर बसे शहरों की तरह लगता है। जहाँ इंसान तो रहते हैं पर कोई जानता नहीं, जो मेरा ठिकाना नहीं है। भूलकर भी उस स्टेसन पर उतरने की गुस्ताखी नहीं करना चाहता। कहीं मुझे इस रस्ते में अनजान लोगों के बीच न रहना पड़े। जो हमारे नहीं हैं। फिर हमारा कौन है? क्या गाँव में बसे चौपाल पे हो रही चर्चाएँ हमारी है या उस माहौल में बच्पनो का बीतना हमारा है ...है नहीं था... हर रिश्तों से एक न एक दिन दुरी बन जाती है... आगे जो बढ़ना है... इसी दुरी को सफ़र करने के बीच का बसा घर लगता है ये... वही गाड़ियों की आवाज भी है, वही सोचने का वक़्त भी है... पर नहीं है तो बस सुनने वाला... वहां भी कौन सुनता था! खुद ही सोची हुई बातें मंजिल आने पे भूल जाते हैं। फर्क बस इतना है कि उस सफ़र की मंजिल पता थी रास्ता नहीं लेकिन इस सफ़र रास्ता पता है मंजिल नहीं...<br />
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Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-62980748291551623502014-02-09T09:18:00.000-08:002014-02-10T09:08:34.384-08:00गाँव से शहर<p>एक तरफ जहाँ लोग इतने काबिल या आधुनिक हो गए हैं कि नए नए नियम बनाने लगे हैं और दूसरी तरफ जिन्दगी तो बस गुजारने की इच्छा से जी रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उन्हें पैसों की पहचान नहीं है, आधुनिकता का आगाज़ नहीं है; पैसे उनके लिए भी मायने रखती है पर उनकी अपनी एक सीमाएं बंधी है। जहाँ के उस पार सिर्फ इंसानियत है, भाईचारा है, एक दुसरे को जीने देने और खुद भी जीने की ललक है। लेकिन ये सब बदल रहा है, वहां भी इंसानियत खोती जा रही है। कल तक जो पिछली पीढ़ी खेती के अलावे गाँव कस्बों में कुछ और रोजगार करने की सोचते थे और करते थे आज अब की पीढ़ी वहां से निकलती जा रही है। सभी बड़े बड़े शहरों में जा रहे हैं अनजान लोगों के बीच। किसी को जब मैंने बचपन में देखा था याद नहीं फिर वो कभी गाँव वापस आया भी या नहीं। सोचता हूँ मैं आज से 20 साल बाद जब ये बड़े बुज़ुर्ग गुजर जायेंगे तो गाँव कहीं सुना न हो जाये क्योंकि 80% बच्चे तो गाँव छोड़ देते हैं अपने भविष्य के लिए और एक नयी जिन्दगी की जद्दो जिहद में लगे रहते हैं। <br>
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Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-41968877852284296952013-07-03T18:47:00.001-07:002016-12-09T02:59:08.715-08:00Random Page; Friday, August 10, 2012<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कभी कभी सोचता हूँ कि जिन्दगी कितनी जल्दी बदल जाती है। इक इच्छा थी की मै किसी मुकाम को पाऊं , आज मंजिल नजदीक नज़र आ रही है तो अजीब लग रहा है कि कभी जो मै हर बात के लिए अपने परिवार के सदस्यों पर निर्भर रहता था, कल मै आत्म-निर्भर हो जाऊंगा।<br />
इक बच्चा जो कभी माँ-बाप की हर इच्छा को मानता है, बड़ा होने पर उसकी कोई इच्छा पूर्ति न होने के कारण उन्ही से बगावत कर बैठता है। एक न एक दिन मै भी अपनी इच्छा पूर्ति करना चाहूँगा, मेरे मन में भी कुछ सपने पल रहे हैं जिसके लिए हो सकता है कि मैं भी ऐसा कदम उठाऊँ... तो क्या जिन्दगी इतनी ही पल किसी का साथ निभाती है जब तक की उसके अपने पंख न हो जाएँ? <br />
कभी-कभी ये भी सोचता हूँ कि आज जो मैं कर रहा हूँ या कल करूँगा , एक न एक दिन हमारी अगली पीढ़ी -वो भी ऐसा करेंगे उससे अगली पीढ़ी- वो भी एस करेगी। ये तो दूर की बात है, इससे पहले भी तो ऐसा होता आया है तो क्या यही जीवन चक्र है? जिसे हर इंसान पूरा करने कवायत करता रहता है? पीढ़ी दर पीढ़ी थोडा बदलाव थोडा परिवर्तन होता जाता है और एक दिन पुरे ढांचे परिवर्तित हो जाते हैं।<br />
एक पति-पत्नी अपनी सारी जिन्दगी एक साथ गुजारते हैं लेकिन इससे जरा सा पीछे जाकर देखता हूँ कि जो आज एक दूजे के लिए न्योछावर है कलतक एक दुसरे को जानते भी नहीं थे। किसी की परवरिश किसी माहौल में हुई है और किसी की और माहौल में लेकिन वो भी एक-दूजे पे जान छिड़कते हैं और तो और कई बार परवरिश करने वाले माहौल यानि अपने पुराने संबंधों को भी नज़र-अंदाज़ कर देता है।<br />
कहीं एसा तो नहीं कि हम दुनिया में किसी और मकसद से आये थे, ये सब इक दिखावटी दुनिया है या फिर एसा भी हो सकता है कि हमे इसी जीवनचक्र का इक हिस्सा बन कर रहना है...<br />
आज जन्माष्टमी है इक अजीब माहौल है इक रौनक है आज हर कोई खुशियाँ मन रहा है लेकिन कल ये सब कुछ जैसे खो सा जायेगा। मेरे लिए तो आज भी बीते हुए कल जैसा ही है और कल भी वैसा ही रहेगा, जैसे ये सभी रौनके मेरे लिए फीकी पड़ गई हो ऐसा लगता है कि किसी चीज़ की तलाश में हूँ जो की मिल नहीं रही है। शायद मेरे मन को शांति उसके मिल जाने पर ही हो...ऐसा आज ही नहीं अक्सर मैं महशुश करता हूँ इतने सारे लोगो के बीच होते हुए भी, नए नए दोस्त बनाते रहने के बावजूद , नए नए लोगों के सोच को जानने के बावजूद भी जैसे इक अकेला सा हूँ। पता नहीं ये कहाँ जाके ये मन शांत होगा या फिर इस अशांति में ही जिंदगी गुज़र जाएगी...</div>
Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5088299641170923287.post-75984440035167265002013-06-22T08:59:00.001-07:002016-12-09T02:59:38.000-08:00Random Page; Sunday, October 14, 2012<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h4 style="text-align: left;">
<div style="text-align: left;">
<span style="font-weight: normal;"><span style="font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13.333333015441895px; line-height: 18px;">"हम जो भी रिश्ता आस-पास देखतें हैं उसे अगर हम खुद तक सिमित रहकर ना देखें बल्कि उससे अलग होकर उस रिश्ते को देखें तो मैंने महशुश किया है की हर रिश्ते की पुन्राव्रीती होती है, जो हम आज अपनी पीढ़ी में कर रहे हैं वही सिख तो अगली पीढ़ी को मिलेगी. </span><span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13.333333015441895px; line-height: 18px;">अगर हम अपने ही घर में देखें तो अगर आज हम अपने माता-पिता की बात अनसुनी करते हैं तो हम अपनी अगली पीढ़ी से ये उम्मीद कैसे रख सकते हैं की वो हमारी बात सुने.</span></span></div>
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<span style="font-weight: normal;"><span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13.333333015441895px; line-height: 18px;"><br /></span></span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="font-weight: normal;"><span style="font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13.333333015441895px; line-height: 18px;">एक माँ अपनी बेटी को जिस निगाह से देखती है, उसका ख्याल रखती है अगर वही सोच अपनी बहु के लिए भी रखे तो शायद सास-बहु सीरियल न बने. एक पिता अपनी बेटी के ख़ुशी के लिए कुछ भी करता है, वो चाहता है की उसकी बेटी को ऐसा ससुराल मिले जहाँ उसे सब प्यार करे; क्या कभी वो खुद पर नज़र डालता है की क्या वो अपनी पत्नी की हर बात वैसे ही मानता है जैसे की बेटी के लिए चाहता है अगर नहीं तो वो ऐसी उम्मीद किसी और लड़के से कैसे रख सकता है.</span></span></div>
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<span style="font-weight: normal;"><span style="font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13.333333015441895px; line-height: 18px;"><br /></span></span></div>
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<span style="font-weight: normal;"><span style="font-size: 13.333333015441895px;">मुझे किसी ने कहा "एक लड़की कितनी भी सेवा करे तब भी वो अपने पति कि रानी नहीं बन पाती... पर हज़ार गलतियाँ करने पर भी पापा के लिए राजकुमारी होती है"</span></span></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="font-weight: normal;"><span style="font-size: 13.333333015441895px;">लेकिन मेरा मानना है कि हम वही पाते हैं जो हम करते हैं. लड़की शादी करके अपने पति से ये उम्मीद करती है कि उसके पति उसकी ननद से ज्यादा उसकी बात माने और वही लड़की चाहती है कि उसका भाई अपनी पत्नी से ज्यादा उसकी की सुने अगर ऐसा न हुआ तो वो जोडू का गुलाम कहलाता है..."</span></span></div>
</h4>
<h2 style="text-align: left;">
<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: "lucida grande" , "tahoma" , "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 13.333333015441895px; line-height: 18px;"><span style="background-color: white;">-<a href="http://www.facebook.com/chandangupta2901">Chandan Kumar Gupta</a></span></span></h2>
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Chandan Kumar Guptahttp://www.blogger.com/profile/00268544273435958690noreply@blogger.com0