Saturday, 8 March 2014

Saturday, March 08, 2014

जब भी खुद के साथ वक़्त बिताता हूँ या बिताने का मौका मिलता है तो लगता है जैसे की मैं किसी राह में फंस गया हूँ। ये घर और ये आवाजें उस रात में चलती रेलगाड़ी से बाहर बसे शहरों की तरह लगता है। जहाँ इंसान तो रहते हैं पर कोई जानता नहीं, जो मेरा ठिकाना नहीं है। भूलकर भी उस स्टेसन पर उतरने की गुस्ताखी नहीं करना चाहता। कहीं मुझे इस रस्ते में अनजान लोगों के बीच न रहना पड़े। जो हमारे नहीं हैं। फिर हमारा कौन है? क्या गाँव में बसे चौपाल पे हो रही चर्चाएँ हमारी है या उस माहौल में बच्पनो का बीतना हमारा है ...है नहीं था... हर रिश्तों से एक न एक दिन दुरी बन जाती है... आगे जो बढ़ना है... इसी दुरी को सफ़र करने के बीच का बसा घर लगता है ये... वही गाड़ियों की आवाज भी है, वही सोचने का वक़्त भी है... पर नहीं है तो बस सुनने वाला... वहां भी कौन सुनता था! खुद ही सोची हुई बातें मंजिल आने पे भूल जाते हैं। फर्क बस इतना है कि उस सफ़र की मंजिल पता थी रास्ता नहीं लेकिन इस सफ़र रास्ता पता है मंजिल नहीं...