काफी अरसे से सोचता चला जा रहा हूँ कि ये बुरा है या अच्छा है पता नहीं क्या है। समझ से परे है। जब भी उच्च जाति (general class) के लोगों को इसको कोसते देखता हूँ तो फिर मन में आ जाता है कि कम से कम एक बार तो इसके बारे में ठीक ढंग से सोच विचार करना ही चाहिए। मेरे एक दोस्त ने तो मुझे इस मुद्दे पर लिखने के लिए इतनी बार बोल दिया कि रहा नहीं गया।
वाकई जरा सोचिये कि आप हर विषय में सबसे बेहतर अंक हासिल कर लिए लेकिन आपको नौकरी इसलिए नहीं मिली क्योंकि आप जनरल कैटगोरी (उच्च जाति) से हैं तो कितनी ग्लानि महसुस होती है इन सिस्टम पर। यकीं मानिये मुझे भी उतना ही होता है। ये गलत सिस्टम है और गलत ही रहेगा।
फिर आखिर ऐसा क्या अम्बेदकर के दिमाग में आया कि वो ऐसी व्यवस्था बना गए? कोसिस कीजिये आप संविधान सभा के बहसों को पढ़ने की। हल नहीं मिलेगा। इस भ्रम में रहिएगा भी मत। हाँ इस बात का कारण जरूर मिल जायेगा। जो ग्लानि आज आप नौकरी न पाकर इस व्यवस्था के लिए महसूस करे हैं ठीक ऐसी ही ग्लानि बाबा साहेब के हर बातों में आपको मिल जायेगी। कानून व्यवस्था से नहीं बल्कि सामाजिक व्यवस्था से। जिस पृष्ठभूमि से बाबा साहेब आते हैं उनके दर्द को अगर समझियेगा तो आपको कानून व्यवस्था से ज्यादा बुरा आपको सामाजिक व्यवस्था लगने लगेगा। और वो सामाजिक व्यवस्था है जाति या वर्ण व्यवस्था! हमारे समाज का एक ऐसा घाव जिसे उच्च जाति अच्छी मानते हैं और निम्न जाति के लोगों का शोषण होता है। ठीक उसी प्रकार या उससे भी विकट जिस प्रकार की कानूनी भेदभाव आप आरक्षण से महसूस करते हैं। ऐसा नहीं है कि अब ये सामाजिक व्यवस्था बदल गई है। जी नहीं बिलकुल नहीं बदली है। अब भी वैसा ही है। हाँ इतना जरूर हुआ है कि शहरी क्षेत्र में हमारे पीढ़ी के काफी लोगों को इस बात से अब कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हमारे दोस्त या सहकर्मी किस जाति के हैं। लेकिन ये वाकया सबके साथ नहीं है। उनमे भी आपको ऐसे लोग मिल जायेंगे जो खुद का उच्च जाति का होने का रौब जमाते हैं।
ऐसा स्वाभाविक है कि मुझे जिस चीज़ से फायदा मिल रहा हो मैं उसका त्याग क्यों करूँगा। उदहारण के लिए मान लीजिये अगर कोई अम्बानी के घर पैदा हुआ है तो वो अपनी अम्बनीयत क्यों छोड़ेगा। ये उदहारण दोनों पे लागु होता है। उच्च जाति में पैदा लेकर सामाजिक स्तर पर लाभ पाने वाले और निम्न जाति में जन्म लेकर कानूनी स्तर पर लाभ पाने वाले। कभी इसका पलड़ा भारी होता है तो कभी उसका। गलत दोनों ही व्यवस्था है।
आंबेडकर ने जाति व्यवस्था को तोड़ने के बहुत प्रयास किये। उसी प्रयासों में से एक है आरक्षण। इससे जाति व्यवस्था तो नहीं ख़त्म हुई लेकिन भेदभाव जरूर आ गया समाज में।
कई लोग कहते हैं कि आरक्षण होना चाहिए लेकिन जाति नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर। आप खुद सोचिये कि अगर जाति ही न हो तो..., क्या इस आरक्षण का कोई मोल रह जायेगा? लेकिन ऐसा क्या है जो इस जाति व्यवस्था को नहीं तोड़ पाता? वो भी इतने प्रयासों के बावजूद। इसका जवाब सुप्रीम कोर्ट ने दिया है। जाति व्यवस्था को तोड़ने का सबसे अच्छा साधन है अंतर्जातीय विवाह! लेकिन ये आज भी हमारे समाज में मंज़ूर नहीं है (कुछ एक अपवाद को छोड़ दिया जाए तो)। और आप यकीं मानिए आप कितना भी कोसिस कर लीजिये जबतक कास्ट सिस्टम नहीं टूटेगा आरक्षण ख़त्म नहीं हो सकता।
आपको लग रहा होगा कि शीर्षक दिया "आरक्षण" लेकिन बोले जा रहे हो वर्ण व्यवस्था पे। जी यही इस आरक्षण की सच्चाई है। कानून में एक कांसेप्ट होता है लिफ्टिंग ऑफ़ कॉर्पोरेट विल। उसको आप यहाँ पर लगाइये और आरक्षण का पर्दा उठाइये। आपको सिर्फ जाति दिखाई देगा। और अगर आप आरक्षण ख़त्म करने की चेष्टा रखते हैं तो आपको पहले वर्ण व्यवस्था को ध्वस्त करना होगा। और अगर आप पहले भेदभाव को नहीं ख़त्म कर सकते तो आपको दूसरे भेदभाव के लिए तैयार रहना चाहिए।
PS: मैंने किसी भी सूरत में आरक्षण को जस्टिफाइ करने की कोसिस नहीं की है। मेरे हिसाब से कास्ट & आरक्षण दोनी ही सिस्टम समाज में गहरी खाई पैदा कर रहा है। मैंने सिर्फ उसके कारण और समाधान ढूंढने का प्रयास किया है।
चन्दन, Chandan
19.05.2016