Monday, 18 March 2024

जीवांश का पहला जन्मदिन और पहली चिट्ठी

बेटा जीवांश,

आज तुम्हारा जन्मदिन है। तुमने एक वर्ष व्यतीत कर लिया अपने जीवन में। तुम्हे बहुत शुभ आशीर्वाद। पर सच पूछो तो जन्मदिन की बधाई और आशीर्वाद देने में भी मेरी धड़कने तेज हो जाती है क्योंकि कुछ यादें झकझोड़ देती है। आमतौर पर इस दिन लोग खुशियां मनाते हैं। हालांकि मुझे कभी ऐसा मौका नहीं मिला। पर इस पर कभी अफसोस भी नही हुआ क्योंकि यही सामान्य बात लगता है। मेरे लिए किसी दिन विशेष का कोई खास महत्व नहीं रहा। गांव के परिवेश में मेरे परिवार में किसी को मेरा जन्मतिथि भी नही पता होना भी आम बात थी। जब अपने युवावस्था में पहुंचा तो इक्ष्छा हुई कि अपना असल जन्मदिन पता चले जो कि कागजों से भिन्न है। बस मां को जितना याद था वो बताई कि दिन शुक्रवार था, अगहन महीना था, पंचमी था । मां ने बताया कि वो पढ़ी लिखी तो है नही कि लिख कर रखती, तारीख भी पंडित जी ने तुम्हारे छठी पर बताया था इसलिए याद है। मैने कहा पापा तो पढ़े लिखे हैं उनको भी तो कुछ याद नहीं कि मैं कब पैदा हुआ। बहरहाल मैने अपना जन्मदिन अंग्रेजी महीना में पता करने के लिए पंचांग देखना शुरू किया और जो तारीख मुझे समझ में आया मैने आगे से वो जन्मदिन सोशल मीडिया पर अपडेट किया ताकि मुझे उस दिन मुझे बधाइयां मिले। हां लेकिन कभी जन्मदिन मनाने की इच्छा नहीं हुई। केक काटना और भंडारा या अन्य कोई भी उत्सव मनाना तो दूर ही रहा। मुझे याद नहीं कि कभी मेरे जन्मदिन पर कोई विशेष आयोजन हुआ हो।

कुछ सालों बाद जब मेरी शादी तुम्हारी मां से हुई तो बहुत सी कहानियां बदल गई। चूंकि वो शहरी परिवेश में रही तो उसे अपना असली जन्मदिन पता भी था और मनाती भी थी जो अनवरत जारी भी रही। शादी के बाद मेरा जन्मदिन जब आया तो मैंने अनिक्षा ही जाहिर की किसी भी उत्सव को लेकर। और सोशल मीडिया से आने वाले संदेशों का आभार प्रकट करके ही मैं खुश था। पर शाम को तुम्हारे मामा केक लेकर आ गए और मैं मना नही कर पाया। मना करना अनुचित भी होता। छोटी छोटी खुशियां मना लेने में सुख होता है। पर एक बात जो उस दिन की आज भी टीस की तरह उभर आई वो ये कि जब मेरे पिताश्री को पता चला तो उन्होंने आशीर्वाद की जगह उम्र कम होने की हिदायत दे डाली। उन्होंने कहा कि इसमें खुशी की क्या बात है, एक वर्ष और कम हो गए जीवन में से। कई घंटो तक वो अपने मोबाइल पर ऐसे विडियोज चला कर आवाज तेज कर हमे सुनाते रहे जो इस बात को खिलाफत करता हो और बताता हो कि जन्मदिन खुशी नहीं शोक का विषय है। ये कसक शायद कभी न जाए मन से पर अपना लेना ही दुखों से मुक्ति देता है। मैने अपना लिया है पर कुछ खास मौकों पर यादें ताजा हो जाती है।

कितना सुंदर होता अगर हर मां बाप अपने बच्चों की खुशियों का जश्न मनाते। कितना सुंदर होता अगर मेरे साथ तुम्हारे दादा भी तुम्हारी तुम्हे दीर्घायु का आशीर्वाद देते। पर शायद ये संभव नहीं क्योंकि उन्होंने मेरे जन्मदिन पर मेरे उम्र से एक वर्ष कम होने की ज्यादा सनद रही है तो तुमसे अलग कैसे होगी। उन्होंने तो यहां तक भी कह दिया था तुम्हारी मां को कि मुझे कभी पुत्र न होगा। पर जब तुमने जन्म लिया तो मुझे लगा कि गलत उद्देश्य से दिया श्राप भी शायद भगवान निस्फल कर देते हैं। देखो आज तुम एक वर्ष के हो गए। आज जब तुम्हे देख तुम पर दुलार आता है तो साथ ही मन में अपने पिछले जीवन की घटनाएं भी याद आती है। पर ये सब किसी से कह नही सकता। पिछले ढाई साल से मैने किसी को कोई सफाई नही दी और चुप रहना चुना जो कि मेरे दादा की मुझे सलाह भी थी। इसके कुछ दुष्परिणाम ये हुआ कि जो झूठ फैलता गया वही सत्य बनता गया। जो मुझसे कभी न भी मिला उसे भी मेरे बारे में उलूल जूलूल पता है। मैं इन अवधारणाओं को तोड़ भी दूं अपने सत्य से पर हासिल क्या होगा। अनदेखा करके इन अवधारणाओं को कम से कम किसी को तो खुशियां मिल रही है। मैने कोसिस करके अपनी अपेक्षाओं पर काबू पाया है जो कि मुझे आगे बढ़ने में प्रबल सहायता देती है।

मैं तुम्हारे जन्मदिन पर आज ये यादें लिखने जा रहा हूं। शायद एक दशक बाद मैने फिर से कुछ मन का लिखा है। पहले काफी लिखता था। आज फिर से उसी गहनता और सच्चाई से लिख रहा हूं। शायद तुम मेरे अंदर की खुशियां यूहीं जगाते रहोगे। अगर दुख भी जगाओगे तो उसे खुशी में बदलने की कोसीस करूंगा ये तुमसे वादा है। तुम जब बड़े हो जाओगे तो इसे पढ़ोगे तो इसे कहानियों की तरह लेना। सीख मिले तो अपना लेना वरना अगली कहानी पढ़ने लग जाना। क्योंकि जीवन चलते जाने का नाम है।

तुम्हे अपने पहले जन्मदिन की बहुत शुभकामनाएं और शुभाशीर्वाद।


तुम्हारा पिता

चंदन

Saturday, 24 December 2016

Random Page, Saturday, December 24, 2016

कभी कभी सोचता हूँ कि आखिर हमें गुस्सा क्यों आता है। गुस्सा हमें तब आता है जब हम दुखी होते हैं। वो भी किसी ऐसी वजहों से जिनसे हम कुछ ऐसी उम्मीद लिए बैठे होते हैं जो कि पूरे नहीं होते। हम अपनी सारी उम्मीदें पूरी होते देखना चाहते हैं। मुझे याद है जब हमारे अंग्रेजी की क्लास में ग्रुप डिस्कशन होता था तो किसी ऐसे मुद्दे को चुना जाता था जो हमारे मन में घर कर रखा होता था। ऐसे ही किसी एक क्लास का एक मुद्दा ही यही था कि हम दुखी क्यों होते हैं। उसमे बहुत से तर्क आये लेकिन हमारे टीचर ने लास्ट में एक ही लाइन में सरे थ्योरी को ख़त्म कर दिया। लाइन भी नहीं एक शब्द में ही सारे आंसर थे। वो शब्द है "Expectation", "उम्मीद"!
कभी आपने सोचा है कि हमें दुसरे का व्यवहार अच्छा क्यों नहीं लगता? क्योंकि वो हमसे उस लहजे में पेश नहीं आता जिसकी हम उससे उम्मीद करते हैं। लेकिन समस्या एक और है। हम हमेशा अपनी ही नजरिया को तवज्जो देते हैं। कभी दुसरे की नज़रों से देखने कि कोशिश नहीं करते। हम कभी ये सोचने का कष्ट नहीं करते कि सामने वाला हमसे क्या उम्मीदें लगा बैठा है। हम अपने लिए तो सारे आदर और सत्कार चाहते हैं लेकिन वही आदर और सत्कार हम दूसरों को देने में आना-कानी करते हैं। कई बार हम मान चुके होते हैं कि उससे उम्मीद करना बेकार हैं फिर भी उम्मीद करना नहीं छोड़ते।

Friday, 9 December 2016

Random Page; Sunday, December 4, 2016

जीवन जीने के लिए जिस आत्मविश्वास की जरुरत होती है वो घर में हमें कभी नहीं मिल पाता। जो बच्चे घर से बहार रहकर पढ़ते हैं उनमें हमेशा उन बच्चों से ज्यादा आत्मविश्वास होता है जो बच्चे घर में रहकर ही पढ़ते हैं। 
जो आज़ादी हमें जिंदगी को समझने के लिए घर से बाहर मिल जाता है वो घर में नहीं मिल पाता। अगर वो आज़ादी, वो माहौल, अगर घर में मिल जाये तो शायद घर से बहार जाने का किसी का मन नहीं करेगा। लेकिन वो सबकुछ घर में नहीं मिल पाता। कम से कम आज़ादी का वो एहसास तो नहीं ही होता है। यही कारण है कि जो एकबार घर से बाहर रह लेता है उसे घर में कुछ दिन बिताने पर ही घुटन महशुस होने लगती है।
ऐसा नहीं है कि हमारे पेरेंट्स ने इन बातों को महशुस न किया हो। वो भी जब पढाई या नौकरी के लिए घर से बाहर गए होंगे तो उन्हें भी इन बातों का एहसास हुआ होगा। लेकिन वो यही बात अपने बच्चों के लिए नहीं सोच पाते हैं। संभव है कि हम भी जब बड़े होंगे तो अपने बच्चों के लिए ये बात न सोच पाएं। लेकिन अगर कहीं से तो शुरुआत करनी होगी; उनके स्तर पर नहीं सही तो हम ही इस को बदल सकें। इन बातों का और कोई असर पड़े न पड़े काम से कम परिवार में बाप- बेटे में दुरी जरूर कम होगी। जोकि हमें अक्सर देखने को मिल जाता है।

Thursday, 19 May 2016

आरक्षण (Reservation)

काफी अरसे से सोचता चला जा रहा हूँ कि ये बुरा है या अच्छा है पता नहीं क्या है। समझ से परे है। जब भी उच्च जाति (general class) के लोगों को इसको कोसते देखता हूँ तो फिर मन में आ जाता है कि कम से कम एक बार तो इसके बारे में ठीक ढंग से सोच विचार करना ही चाहिए। मेरे एक दोस्त ने तो मुझे इस मुद्दे पर लिखने के लिए इतनी बार बोल दिया कि रहा नहीं गया।
वाकई जरा सोचिये कि आप हर विषय में सबसे बेहतर अंक हासिल कर लिए लेकिन आपको नौकरी इसलिए नहीं मिली क्योंकि आप जनरल कैटगोरी (उच्च जाति) से हैं तो कितनी ग्लानि महसुस होती है इन सिस्टम पर। यकीं मानिये मुझे भी उतना ही होता है। ये गलत सिस्टम है और गलत ही रहेगा।
फिर आखिर ऐसा क्या अम्बेदकर के दिमाग में आया कि वो ऐसी व्यवस्था बना गए? कोसिस कीजिये आप संविधान सभा के बहसों को पढ़ने की। हल नहीं मिलेगा। इस भ्रम में रहिएगा भी मत। हाँ इस बात का कारण जरूर मिल जायेगा। जो ग्लानि आज आप नौकरी न पाकर इस व्यवस्था के लिए महसूस करे हैं ठीक ऐसी ही ग्लानि बाबा साहेब के हर बातों में आपको मिल जायेगी। कानून व्यवस्था से नहीं बल्कि सामाजिक व्यवस्था से। जिस पृष्ठभूमि से बाबा साहेब आते हैं उनके दर्द को अगर समझियेगा तो आपको कानून व्यवस्था से ज्यादा बुरा आपको सामाजिक व्यवस्था लगने लगेगा। और वो सामाजिक व्यवस्था है जाति या वर्ण व्यवस्था! हमारे समाज का एक ऐसा घाव जिसे उच्च जाति अच्छी मानते हैं और निम्न जाति के लोगों का शोषण होता है। ठीक उसी प्रकार या उससे भी विकट जिस प्रकार की कानूनी भेदभाव आप आरक्षण से महसूस करते हैं। ऐसा नहीं है कि अब ये सामाजिक व्यवस्था बदल गई है। जी नहीं बिलकुल नहीं बदली है। अब भी वैसा ही है। हाँ इतना जरूर हुआ है कि शहरी क्षेत्र में हमारे पीढ़ी के काफी लोगों को इस बात से अब कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हमारे दोस्त या सहकर्मी किस जाति के हैं। लेकिन ये वाकया सबके साथ नहीं है। उनमे भी आपको ऐसे लोग मिल जायेंगे जो खुद का उच्च जाति का होने का रौब जमाते हैं।
ऐसा स्वाभाविक है कि मुझे जिस चीज़ से फायदा मिल रहा हो मैं उसका त्याग क्यों करूँगा। उदहारण के लिए मान लीजिये अगर कोई अम्बानी के घर पैदा हुआ है तो वो अपनी अम्बनीयत क्यों छोड़ेगा। ये उदहारण दोनों पे लागु होता है। उच्च जाति में पैदा लेकर सामाजिक स्तर पर लाभ पाने वाले और निम्न जाति में जन्म लेकर कानूनी स्तर पर लाभ पाने वाले। कभी इसका पलड़ा भारी होता है तो कभी उसका। गलत दोनों ही व्यवस्था है।
आंबेडकर ने जाति व्यवस्था को तोड़ने के बहुत प्रयास किये। उसी प्रयासों में से एक है आरक्षण। इससे जाति व्यवस्था तो नहीं ख़त्म हुई लेकिन भेदभाव जरूर आ गया समाज में।
कई लोग कहते हैं कि आरक्षण होना चाहिए लेकिन जाति नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर। आप खुद सोचिये कि अगर जाति ही न हो तो..., क्या इस आरक्षण का कोई मोल रह जायेगा? लेकिन ऐसा क्या है जो इस जाति व्यवस्था को नहीं तोड़ पाता? वो भी इतने प्रयासों के बावजूद। इसका जवाब सुप्रीम कोर्ट ने दिया है। जाति व्यवस्था को तोड़ने का  सबसे अच्छा साधन है अंतर्जातीय विवाह! लेकिन ये आज भी हमारे समाज में मंज़ूर नहीं है (कुछ एक अपवाद को छोड़ दिया जाए तो)। और आप यकीं मानिए आप कितना भी कोसिस कर लीजिये जबतक कास्ट सिस्टम नहीं टूटेगा आरक्षण ख़त्म नहीं हो सकता।
आपको लग रहा होगा कि शीर्षक दिया "आरक्षण" लेकिन बोले जा रहे हो वर्ण व्यवस्था पे। जी यही इस आरक्षण की सच्चाई है। कानून में एक कांसेप्ट होता है लिफ्टिंग ऑफ़ कॉर्पोरेट विल। उसको आप यहाँ पर लगाइये और आरक्षण का पर्दा उठाइये। आपको सिर्फ जाति दिखाई देगा। और अगर आप आरक्षण ख़त्म करने की चेष्टा रखते हैं तो आपको पहले वर्ण व्यवस्था को ध्वस्त करना होगा। और अगर आप पहले भेदभाव को नहीं ख़त्म कर सकते तो आपको दूसरे भेदभाव के लिए तैयार रहना चाहिए।

PS: मैंने किसी भी सूरत में आरक्षण को जस्टिफाइ करने की कोसिस नहीं की है। मेरे हिसाब से कास्ट & आरक्षण दोनी ही सिस्टम समाज में गहरी खाई पैदा कर रहा है। मैंने सिर्फ उसके कारण और समाधान ढूंढने का प्रयास किया है।

चन्दन, Chandan
19.05.2016

Saturday, 2 April 2016

अवधारणा (Perception परसेप्शन)

बराबरी का हक़ (Right to equlity)......सुन के बहुत अच्छा लगता है न? किसी समाज सुधारक विचार को। लगना भी चाहिए। महिला पुरुष को बराबरी का हक़ मिलना चाहिए। अमीर गरीब को बराबरी का हक़ मिलना चाहिए। हर मजहब, हर जाति के लोगों को बराबरी का हक़ मिलना चाहिए। मैं भी इसके खिलाफ नहीं हूँ लेकिन क्या है कि जब भी इन सबके लिए लड़ने वालों को या आवाज़ उठाने वालों को देखता हूँ तो बहुत निराशा होती है। उनके इन मांग में भी बराबरी नहीं होता बल्कि स्थिति को उल्टा करने की प्रविर्ती होती है। अगर महिलाओं के लिए आवाज़ उठा रहे हैं तो उन्हें पुरुष से ज्यादा शक्तिशाली बनाने की चेष्टा रखते हैं। अगर गरीब के लिए आवाज़ उठा रहे हैं तो उन्हें अमीरों पर हुक़ूमत की आज़ादी चाहते हैं। अगर निम्न जाति के लिए आवाज़ उठा रहें हैं तो उच्च जाति पर हुक़ूमत चाहते हैं। मान लीजिये ऐसा हो जाये कि सबकी मांग पूरी हो जाए। तो क्या होगा? सबको बराबरी का हक़ मिल जायेगा? या फिर सिर्फ पक्ष बदलेगा? लड़ाई तब भी चलती रहेगी बस वादी और प्रतिवादी के स्थान बदल जायेंगे।
अक्सर मैंने देखा है कि अगर किसी महिला और पुरुष के बीच, अमीर और गरीब के बीच, एक धर्म के लोगों का दूसरे धर्म से, या फिर उच्च जाति का निम्न जाति से विवाद होता है तो पुरुष सारी जिम्मेदारी महिला पर थोप देते हैं और महिला सारी जिम्मीदारी पुरुष पर, अमीर गरीब पर और गरीब अमीर पर, हिन्दू मुसलमान पर और मुसलमान हिन्दू पर, उच्च जाती निम्न पर और निम्न उच्च पर। कौन सही है कौन गलत है इससे किसी को कोई लेना देना नहीं है। बस पहले से एक परसेप्शन बना हुआ है एक दूसरे के प्रति, उसी ढर्रे पर दोनों अपना फैसला सुना देते हैं और उसी फैसले, जिसका की आधार ही गलत है, के बुते अपना सारा निर्णय लेते हैं। कुछ इन्ही सब वजहों से मुझे कानून के शब्द "प्राइमा फेसी" से नफरत होने लगा है। हाँ इस बात को मानता हूँ कि किसी एक का दूसरे पर डोमिनेन्स हो सकता है और इस बात का वो फायदा भी उठा सकता है। लेकिन सर इसी बिनाह पर कि कोई डॉमिनेटिंग स्थिति में है तो वो गलत किया होगा ये जरुरी नहीं है। कानून को कभी किसी ने गाइड की तरह माना कब है? उसका रोल तो तब आता है जब घटनाएं घट जाए या फिर न घटे तो कृत्रिम कहानी बनाकर ब्लैकमेल करना हो।
हमारे यहाँ इस तरह की हर लड़ाई का आधार यही है कि जो ऊपर है उसे निचे ला दो और जो निचे है उसे ऊपर। आरक्षण को ही देख लीजिये। इसमें व्यवस्था ये होनी चाहिए कि सब को बराबरी का मौका मिले सब बराबरी में आ जाये लेकिन व्यवस्था ये है कि दूसरे की जगह दूसरों को दे दो। महिला सुरक्षा क़ानून को ही देख लीजिये। व्यवस्था ये होनी चाहिए कि पुरुष और महिलाओं में अंतर न किया जाए लेकिन व्यवस्था ये है कि पुरुषों को प्राइमा फेसी गलत मान लिया जाए। बाकी और भी कई उदाहरण है आप दिन भर बैठ कर सोचते रहिएगा।
आप महिला, माइनॉरिटी आदि को लेकर अक्सर बहुत कुछ पढ़ते होंगे और आप खुद सामाजिक मानसिक रूप से जागृत समझने लगते होंगे खुद को। हाँ ये अलग बात है कि आपने कभी दूसरे पक्ष को जानने की हिमाकत नहीं की होगी। अगर ऐसा है तो फिर सावधान हो जाइए क्योंकि हो सकता है आप गलत आधार पर निर्णय ले रहे हों और बाद में पश्चाताप हो। सबकुछ जो हमारे सामने पेश किया जाता है वैसा वाकई में होता नहीं है।
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चन्दन chandan
02-04-2016
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Friday, 5 February 2016

पत्र तुम्हारे नाम

इस बात की नाराजगी नहीं है कि तुमने अलविदा कह दिया। नाराजगी इस बात से है कि तुम्हे इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। हालाँकि मेरा मन अभी भी इस बात की गवाही देने को तैयार नहीं है कि तुम सच में खुश हो या तुम अपने ख्वाहिसों को दबा नहीं रही। खैर, मैं अंदर से कुछ भी मानु उसे कर्म का रूप तब तक नहीं दे सकता जब तक कि तुम खुल कर या इशारों में भी इस बात की पुष्टि न कर दो। समय के साथ मनुष्य खुद को ढाल ही लेता है। तुम भी ढाल ही लोगी। लेकिन ये तो भविष्य की बातें है। अभी अगर तुम्हारे दिल के किसी भी कोने में रिश्तों की अहमियत बाकि है तो एक हामी की देरी है। डरो मत कि आगे क्या होगा, हम रास्ता बना लेंगे। बस एक बार कह दो कि तुम्हे हमसे मोहब्बत है। अगर नहीं है मोहब्बत तो कुछ सवालों का जवाब ही दे दो। वो क्या था जब तुमने  कहा था कि तुम्हे सिर्फ मुझसे मोहब्बत है? क्या तुम झूठ बोल रहे थे? अगर झूठ बोल रहे थे तो वाकई तुम्हारी रिझाने की कला की दाद देता हूँ। लेकिन अगर वो बातें उस वक़्त सच थी तो फिर किसी की चाहत इतनी बदल कैसे सकती है? मेरी चाहत में तो गाढ़ता आ गई तो फिर तुम्हारी कैसे धुंधली हो गई? धुंधली भी नहीं मिट ही गई। मुझे शिकायत नहीं है तुमसे। बस समझना चाहता हूँ इस संसार को। अगर हार मिली तो कबूल करने में परेशानी नहीं है। लेकिन हार की वजह भी न जान सका तो ज़िन्दगी भर मलाल रहेगा। और शायद ये विश्वास भी कि तुम लौट कर आओगी। चली जाना, मैं रोकूँगा नहीं पर पहले मुझे इस बंधन से तो मुक्त कर दो। मुझे कोई कहानी नहीं सुननी है तुमसे। उम्मीद है तुम सुनाओगी भी नहीं। सिर्फ सच जानना चाहता हूँ । चाहे वो कितनी ही कड़वी हो। मुझमे सच हजम करने खूबी बहुत है ये पता है तुम्हे। मलाल तो और भी है पर वो सारी बातें छोटी पड़ जायेगी अगर सच जान गया तो। बस एक बार अपनी कहानी तुम अपने मन से सुना दो। जो तुमने सुना, सोचा, कहा या फिर महसूस किया। जो भी तुम्हारे मन में एहसास जगे और फिर धूमिल होते गए। सब सुना दो। हक़ीक़त सुना दो। अपनी कहानी सुना दो। जो शायद तुमने कभी किसी से नहीं कहा होगा, अपने मन में दबा रखा होगा। बस एक बार मुझको बता दो। इस बात का भी ज़िक्र करना कि तुम छुप कर बातें करते थे मुझसे। इस हद तक ज़िक्र करना कि कैसे गर्मियों में भी कम्बल ओढ़ते थे सिर्फ इसलिए कि गुफ्तगू करनी थी मुझसे। ये भी बताना कि पूछता था मैं तुमसे "मेरी बनोगी न?" जवाब भी बताना जो तुम कहा करते थे "जरूर बनूँगी! ग़र आपकी नहीं तो किसी की नहीं"। उस डायरी के पन्ने भी सुनाना जिनमे तुम मेरा नाम लिखती थी और काट देती थी। ये भी बताना कि जिस डायरी में तुम अपने जज्बात लिखती थी उसमे मेरी बातों ने कैसे जगह ले लिया। सच बताना! कहानी मत सुनाना। हो सकता है तुम्हे ये सब सुनाने में असहज लगे  तो मुझे मत सुनाओ। उसे सुना दो जिसके साथ ये बातें करने में सहज हो और कहो उससे कि वो मुझतक पहुंचा दे। मुझे यकीं है, नहीं होगा कोई मेरे सिवा जिससे तुम अपने जज्बातों की इस गहराई को सुना सको। पर इतना मत सोचो, मैं तो हूँ जिसे तुम सुना सकती हो। मुझे ही बता दो। लिखकर ही बता दो। फिर से गुज़ारिश करता हूँ तुमसे मुझे जिंदगी भर के लिए जज्बाती अपाहिज मत बनाओ। तुम अपने जज्बात सुना दो, मेरे हार को वजह मिल जायेगी और मैं आगे बढ़ पाउँगा। हाँ लेकिन बनावटी कहानी मत सुनाना। सच बताना।
तुम्हारा
चन्दन

Thursday, 14 January 2016

हैप्पी फलाना डे !

इक अजीब सी आदत देखता हूँ लोगों में, पश्चिमी सभ्यता का असर ही सही, किसी भी दिन के आगे हैप्पी लगा के विश कर देते हैं। शुक्र है कि मरे हुए लोगों से सम्पर्क नहीं कर सकते नहीं तो लोग उन्हें भी उनके मरने की सालगिरह मानते हुए "हैप्पी डेथ डे" विश कर देते। नहीं, ख़राब आदत है मैं ये नहीं कहता और मैं ये तय करने वाला होता भी कौन हूँ लेकिन और भी मौजूद तरीके को अपना सकते हैं जो इससे बेहतर शुभकामनाये देने में सक्षम हो सकती है। आज मकर संक्रांति है। बहुतों को नहीं पता कि ये आखिर होता क्या है। पता है तो बस इतना कि आज पर्व है और "हैप्पी मकर संक्रांति" विश कर दिया। शुक्र है कि लोग क्रिश्मश के दिन "मैरी क्रिश्मश" ही विश करते हैं। ये अलग बात है कि "मैरी क्रिश्मश" ही क्यों बोलते हैं ये बात बहुतों को नहीं पता। सच पूछिये तो मुझे भी नहीं पता। अगर आपको पता हो तो मुझे जरुर बताईयेगा। वैसे ये जरुरी तो नहीं कि हर वो दिन जिसे विश किया जाता है वो हैप्पी ही हो। अनहैप्पी भी तो हो सकता है। खैर हो सकता है कि जो भी हमें विश करते हैं वो शायद हमारा अनहैप्पी कभी न चाहते हो इसलिए हमेशा हैप्पी ही विश करते हैं। जरा रुकिए ! एक बार फिर से मेरे पिछले वाक्य को पढ़िए। क्या सच में जितने लोग हमें विश करते हैं वो हमारा अनहैप्पी कभी नहीं चाहते? पता नहीं।  हो सकता है।  मुझे नहीं पता।

इससे पहले कि आप मुझपर इल्जाम लगायें कि मैंने सिर्फ सवालों को खड़ा कर के छोड़ दिया है, मैं आपको बता दूँ कि मैंने कोई सवाल नहीं खड़े किये हैं। मैंने सिर्फ अपने मन में कई वर्षों से इकठ्ठा हुए भड़ास को बाहर निकाल दिया ताकि अगर आप ने भी कभी ऐसा सोचा हो तो आप हिम्मत कर सके बोलने की। फिर भी अगर मैं अपना अल्टरनेटिव उपाय ना बताऊँ तो नाइंसाफी होगी।  इसलिए कहे देता हूँ। अगर आप वाकई में खुश हैं और दूसरों को खुशियाँ बाँटना चाहते हैं तो उन्हें बांटिये जो इन खुशियों के लिए तड़प रहे हैं। और विश करके नहीं उन्हें सच में खुश करके। क्योंकि विश करने का आशय ही होता है कि आप रब से ऐसा चाहते हैं। लेकिन रब के सामने कभी किसी को मैंने दूसरों के लिए खुशियाँ मांगते हुए नहीं देखा है। सिर्फ अपने लिए मांगते हैं। हाँ.., याद आया, फिल्मो में देखा है दूसरों के लिए भी मांगते हुए। वैसे भी, मैं तो ठहरा नास्तिक मैं खुद के लिए नहीं मांगता तो दूसरों के लिए क्या मांगू।  मैं तो दूसरों को खुश देखता हूँ तो अच्छा लगता है फिर कुछ ही क्षणों में लगता है कि ये खुशियाँ मुझे भी मिलनी चाहिए मतलब कि अगर दुसरे शब्दों में कहें तो थोड़ी बहुत इर्ष्या भी होती है। चलिए.... मेरी बातें आप कब तक बर्दाश्त करते रहिएगा। जाईये तिल और गुड खाईये।